________________ जैन दार्शनिक सिद्धान्त 11 आस्रव दो प्रकार के होते हैं - भावाश्रव और द्रव्याश्रव / आत्मा की वह विकृति, जिससे उसमें कर्म-प्रवेश संभव हो, भावाश्रव है / द्रव्याश्रव कर्म पुद्गल है, जो आत्मा में प्रविष्ट होता है / भावाश्रव के पाँच कारण होते हैं - (1) मिथ्यात्व (2) अविरत (3) प्रमाद (4) कषाय और (5) योग। (1) जिसके कारण जीव सत्य को असत्य और असत्य को सत्य, हित को अहित और अहित को हित तथा अजीव को ही जीव समझे, उसे मिथ्यात्व कहते हैं / (2) इन्द्रियों और मन को वश में न रखकर दोषों से विरत न होना अविरत कहलाता है। (3) कर्त्तव्य के प्रति असावधानी प्रमाद कहलाती है। (4) कषाय उस भाव को कहते हैं जो जीव के स्वाभाविक गुणों का नाश करता है। यह चार प्रकार का होता है - क्रोध, मद, लोभ और माया / मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवृत्ति को योग कहते हैं। तदनुसार तीन प्रकार के योग होते हैं - मनोयोग, कायायोग और वाचायोग / योग ही आस्रव का मूल कारण है। भावाश्रव कर्म पुद्गलों को आकर्षित करता है। इसके लिये कर्म करना पड़ता है। द्रव्याश्रव भावाश्रव से उत्तेजित कर्मों का फल है। ये आठ प्रकार के होते हैं, जिन्हें अन्तराय कहा जाता है / इनका विस्तृत विवेचन आगे कर्म के आठ प्रकारों के नाम से किया जावेगा / पुण्य शुभ कर्मों के परिणामस्वरूप पुण्य का उपार्जन होता है / यह भी बन्धन को ही उत्पन्न करता है। पुण्य पाँच प्रकार के माने जाते हैं - दान पुण्य, मानसिक पुण्य, वाचा पुण्य, काया पुण्य और नमस्कार पुण्य / नमस्कार पुण्य के अन्तर्गत अन्न-पुण्य, पान-पुण्य, वस्त्र-पुण्य, लयन (आवास)-पुण्य और शयनपुण्य आते हैं। पाप अशुभ कर्मों से पाप की प्राप्ति होती है। ये अठारह प्रकार के माने गये हैं - हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, माया, द्वेष, क्लेश, किसी पर झूठा दोष लगाना, चुगली करना, निन्दा, मिथ्यात्व, और वे सब क्रियाएँ जिनसे भय, शोक, किसी स्त्री या पुरुष से प्रेम या किसी वस्तु से आसक्ति उत्पन्न हो या जिसमें किसी की अनुचित हसी हो / इन सब पापों में हिंसा सबसे बड़ा पाप मानी गयी है। इन पापों के परिणामस्वरूप जीव दुःख को प्राप्त करता है। बन्ध आस्रव, चाहे शुभ हो या अशुभ, बन्धन का कारण होता है। शुभ आस्रव से देवगति और अशुभ आस्रव से अधोगति प्राप्त होती है। शुभ और अशुभ आस्रव को ही क्रमशः पुण्य और पाप कहा जाता है / जब तक कर्मक्षय के द्वारा आस्रव का विनाश नहीं होता, तब तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती / दो प्रकार के आस्रव पर आधारित दो प्रकार के बन्ध हैं - भाव-बन्ध और द्रव्य-बन्ध / वह चेतन की कषाय दशा, जिसके द्वारा जीव का कर्म से संसर्ग होता है, भावबन्ध है / कर्म के अणुओं का जीव में प्रवेश होने को द्रव्य-बन्ध कहते हैं /