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________________ जैनदर्शन में बौद्धसम्मत 'पर्याय' की समीक्षा 193 अगोव्यावृत्ति को कहता है / पर जैन इसे तथ्य संगत नहीं मानते / उनका कथन है कि गोशब्द को सुनकर साक्षात् गाय का ज्ञान होता है, अन्यव्यावृत्ति का नहीं / अतः गाय को ही गो शब्द का वाच्य मानना ठीक है, अगोव्यावृत्ति को नहीं / अन्यापोह में संकेत भी संभव नहीं है, क्योंकि न तो उसका कोई स्वभाव है और न वह कोई अर्थक्रिया करता है / इसलिए बौद्धों के द्वारा माना गया असत् सामान्य शब्दों का वाच्य नहीं हो सकता है। बौद्ध यद्यपि धर्मी में स्वतः स्वभावभेद नहीं मानते हैं, किन्तु अन्यव्यावृत्ति के द्वारा स्वभावभेद की कल्पना करते हैं / पर यह तब सही होता, जब वहाँ वस्तुभूत् असत् अकृतक आदि रूप कोई पदार्थ होता / जब वैसा कोई पदार्थ ही नहीं है तो उससे किसी की व्यावृत्ति कैसे हो सकती है। बौद्धदर्शन में धर्म और धर्मी की सिद्धि आपेक्षिक मानी गई है। अतः विशेषण-विशेष, कार्यकारण आदि की सिद्धि आपेक्षिक होने से इन सब का व्यवहार काल्पनिक हो जाता है। पर ऐसी स्थिति में बौद्धदर्शन में तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकेगी / नील स्वलक्षण और नील ज्ञान परस्पर सापेक्ष हैं तो वे भी मिथ्या सिद्ध हो जायेंगे। अतः सर्वथा आपेक्षिक सिद्धि मानना ठीक नहीं है। कार्य-कारण, सामान्य-विशेष आदि की सत्ता सर्वथा आपेक्षिक नहीं है, स्वतन्त्र सत्ता है। सर्वथा आपेक्षिक मानने पर दोनों के अभाव का प्रसंग उपस्थिति हो जाता है। बौद्धदर्शन में पदार्थ को स्वलक्षण कहा जाता है / वह अवाच्य और अनिर्देश्य है / पर ऐसी स्थिति में न शब्द का प्रयोग किया जा सकता है और न कोई उपदेश दिया जा सकता है। वह तो अज्ञेय बन जायेगा / यदि यह कहा जाये कि शब्द से अन्यापोह का कथन होता है, शब्द न पदार्थ में रहते हैं और न पदार्थ के आकार हैं। पर ऐसा मानने पर जिस प्रकार अर्थ में शब्द नहीं है, उसी प्रकार इन्द्रियज्ञान में विषय भी नहीं है / इसलिए इन्द्रियज्ञान के होने पर भी विषय का ज्ञान नहीं होगा / बौद्ध सामान्य और स्वलक्षण में भेद मानते हैं / उनके अनुसार स्वलक्षण का लक्षण या कार्य अर्थक्रिया करना है / इसके विपरीत सामान्य कोई भी अर्थक्रिया नहीं करता / स्वलक्षण परमार्थ सत् है और सामान्य संवृति सत् / स्वलक्षण वास्तविक हैं और सामान्य काल्पनिक / यथार्थ में केवल स्वलक्षण की ही सत्ता है / सामान्य कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। जैन दार्शनिक इसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि इस प्रकार स्वलक्षण और सामान्य में भेद करना ठीक नहीं है। "स्वं असाधारणं लक्षणं यस्येति" व्युत्पत्ति के अनुसार जिस प्रकार विशेष (पर्याय) व्यावृत्ति ज्ञान रूप अर्थक्रिया करता है, उसी प्रकार सामान्य (द्रव्य) भी अनुवृत्ति ज्ञानरूप अर्थक्रिया करता है। भारवहन आदि अर्थक्रिया करने में जैन-बौद्ध समान रूप से सुखादि को चैतन्य रूप से ही सिद्ध करते हैं और स्वसंविदित भी / (न्यायावतार वृत्ति, पृ०-२०; प्रमाणवार्तिक 2.38) / द्रव्यार्थिकनय के उत्तरभेद तीन हैं - नैगम, संग्रह और व्यवहार / पर्यायार्थिक के उत्तरभेद चार हैं - ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवंभूत / इनमें बौद्धदर्शन का सम्बन्ध ऋजुसूत्र नय से विशेष है। भूत और भविष्यत् काल की अपेक्षा न करके, केवल वर्तमान समयवर्ती एक पर्याय को ग्रहण करने वाले
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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