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________________ 194 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा नय को ऋजुसूत्रनय कहते हैं / पर्याय एक क्षणवर्ती होती है। ऋजुसूत्र नय वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करता है, अतीत और अनागत पर्याय को ग्रहण नहीं करता / यथार्थ में अतीत के विनष्ट हो जाने से तथा अनागत को अनुत्पन्न होने से उनमें पर्याय-व्यवहार हो भी नहीं सकता / इसी से ऋजुसूत्रनय का विषय वर्तमान पर्याय मात्र बतलाया गया है / इस नय में द्रव्य सर्वथा अविवक्षित है। यहाँ हमने संक्षेप में बौद्धदर्शन सम्मत पर्याय की जैन दर्शन की दृष्टि से समीक्षा की है। संदर्भ 1. यस्मिन्नेव तु सन्ताने अहिता कर्मवासना / फलं तत्रैव संधत्ते, कार्पासे रक्त यथा // - तत्त्वसंग्रह पञ्जिका, पृ०१८२ में उद्धृत 2. दिशं न काञ्चिद्विदिशं न काञ्चित नेवावनिं गच्छति नान्तरिक्षम् / दीपो यथा निर्वृतिमभ्युपेत: स्नेहक्षयात् केवलमेति शान्तिम् / / - सौन्दरानन्द, 16.28.29 3. प्रमाणवार्तिक, 3.40,3.133, 3.67-69
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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