________________ जैनदर्शन में बौद्धसम्मत 'पर्याय' की समीक्षा 191 उपादान का नियम है, सदृशता के कारण, पर तन्तु और घट में उपादान का नियम नहीं है, क्योंकि तन्तु से घट विसदृश है / जैन उत्तर देते हैं कि मृत्पिण्ड और घट में अन्वय-व्यतिरेक के अभाव में उसी प्रकार का वैलक्ष्य है, जिस प्रकार तन्तु और घट में है। पूर्व स्वभाव का सर्वथा नाश होने पर और किसी पदार्थ के द्रव्य रूप से स्थित न रहने पर भी कार्य की उत्पत्ति मानने पर न तो उपादान का नियम सिद्ध हो सकता है और न कार्य की उत्पत्ति में विश्वास ही हो सकता है। वास्तव में तन्तुओं की अपेक्षा से पट रूप कार्य सत् है, और घट की अपेक्षा से असत् है / अत: असत्कार्यवाद और निरन्वय क्षणिकवाद में कार्य की उत्पत्ति असंभव है। __ सर्वदा क्षणभंगवाद पर एक लम्बी बहस जैन-बौद्ध दार्शनिकों में हुई है। जैन दार्शनिक वस्तु को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप मानते हैं / इस सन्दर्भ में समन्तभद्राचार्य की आप्तमीमांसा की एक कारिका बड़ी चर्तित हुई है - घटमौलि सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् // 59 // पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोत्ति दधिव्रतः अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्वं त्रयात्मकम् // 60 // यह उदाहरण पर्याय किंवा अनेकान्तवाद से सम्बद्ध है / वैदिक आचार्यों के समान बौद्धाचार्यों ने भी इस सन्दर्भ में अनेक प्रश्न खड़े किये हैं, जिनका उत्तर जैनाचार्यों ने भलीभाँति प्रस्तुत किया है। विरोध का मूल स्वर है कि अस्तित्व और अनस्तिकाय अथवा भाव और अभाव ये दो विरोधी धर्म एक ही पदार्थ में कैसे रह सकते हैं ? जैनाचार्यों ने कहा कि दो विरोधी धर्म एक ही पदार्थ में स्वद्रव्यचतुष्टय के आधार पर रहते हैं और परद्रव्यचतुष्टय के आधार पर नहीं रहते (सर्वमस्ति स्वरूपेण पररूपेण नास्ति च ) / पदार्थ की उत्पत्ति, विनाश और स्थिति को अन्यथानुपन्न हेतु' के माध्यम से सिद्ध किया जाता है। बौद्ध भी इसे स्वीकार करते हैं। उनके मत में सजातीयक्षण उपादान कारण बनते हैं। इसे जैन परिभाषा में 'ध्रौव्य' कह सकते हैं और बौद्ध परिभाषा में 'सन्तान' / ध्रौव्य या सन्तान के माने बिना स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, बन्ध-मोक्ष आदि नहीं हो सकते / प्रत्येक द्रव्य में भेदाभेदात्मक तत्त्व रहते हैं / द्रव्य से गुण और पर्यायों को पृथक् नहीं किया जा सकता। व्यवहार की दृष्टि से उनका संज्ञा आदि में भेद अवश्य हो जाता है / वादिराज ने अर्चट के खण्डन का खण्डन इसी आधार पर किया है (न्यायविनिश्चय विवरण, 1087) / जात्यन्तर के आधार पर भी विरोधात्मकता को समझा जा सकता है। उदाहरणतः स्वभाव को देखकर किसी को नरसिंह कह देना / पदार्थ में भेदाभेदात्मक तत्त्वों का संमिश्रण रहता ही है। इसी को जात्यन्तर कहते हैं / अपेक्षा की दृष्टि से वे एक स्थान पर बने रहते हैं / अतः कोई विरोध नहीं है (अनेकान्तजयपताका, भाग 1. पृ०७२; न्यायकुमुदचन्द्र, पृ०३४९)