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________________ 190 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा बौद्ध दर्शन में पदार्थ को स्वलक्षण कहा जाता है / वह अवाच्य और अनिर्देश्य है / पर ऐसी स्थिति में न शब्द का प्रयोग किया जा सकता है और न कोई उपदेश दिया जा सकता है / वह तो अज्ञेय बन जायेगा / यदि कहा जाये कि शब्द से अन्यापोह का कथन होता है, शब्द न पदार्थ में रहते हैं और न पदार्थ के आधार हैं, पर ऐसा मानने पर जिस प्रकार अर्थ में शब्द नहीं है, उसी प्रकार इन्द्रिय-ज्ञान में विषय भी नहीं है / इसलिए इन्द्रियज्ञान के होने पर भी विषय का ज्ञान नहीं होगा / ___बौद्ध सामान्य और स्वलक्षण में भेद मानते हैं / उनके अनुसार स्वलक्षण का लक्षण या कार्य अर्थक्रिया करना है / इसके विपरीत सामान्य कोई भी अर्थक्रिया नहीं करता है / स्वलक्षण परमार्थ सत् है और सामान्य संवृतिसत् / स्वलक्षण वास्तविक है और सामान्य काल्पनिक / यथार्थ में केवल स्वलक्षण की ही सत्ता है। सामान्य कोई वास्तविक पदार्थ नहीं है। जैन दार्शनिक इसका खण्डन करते हुए कहते हैं कि इस प्रकार स्वलक्षण और सामान्य में भेद करना ठीक नहीं है। "स्वं असाधारणं लक्षणं यस्येति" व्युत्पत्ति के अनुसार जिस प्रकार विशेष (पर्याय) व्यावृत्तिज्ञान रूप अर्थक्रिया करता है, उसी प्रकार सामान्य (द्रव्य) भी अनुवृत्ति ज्ञानरूप अर्थक्रिया करता है / भारवहन आदि अर्थ करने में सामान्य और विशेष दोनों समर्थ नहीं हैं, किन्तु सामान्य विशेषात्मक गौ ही उक्त अर्थक्रिया करती है / इसी प्रकार बिना सामान्य के विशेष भी नहीं हो सकता है। जिसमें गोत्व नहीं है, वह गौ यथार्थ में गौ नहीं हो सकती है। अतः पदार्थ में न केवल सामान्य रूप है और न केवल विशेष रूप है और न पृथक्-पृथक् सामान्य-विशेष रूप है, किन्तु परस्पर सापेक्ष होने से सामान्य विशेषात्मक है / स्वलक्षण में विधि-निषेध व्यवहार संवृति (कल्पना) से मानना भी तभी संभव है, जब एक रूप पदार्थ की उपलब्धि होती हो / यदि उसमें अनेकत्व की प्रतीति अविद्या या संवृति के कारण होती है तो एक तो संसार में किसी तत्त्व की व्यवस्था ही नहीं हो सकेगी और दूसरे पदार्थ स्वतः अनेकान्तात्मक सिद्ध हो जायेगा / अस्तित्व और नास्तित्व अविनाभावी धर्म हैं, विशेषण-विशेष्य हैं / उनके अभाव में वस्तु का अपना कुछ भी स्वरूप शेष नहीं रहता है / दृश्य और विकल्प्य में कथंचित् भी तादात्म्य न हो तो स्वलक्षण के स्वरूप का निर्णय ही नहीं किया जा सकता है। इसलिए न तो सामान्य अवास्तविक है और न विशेष से पृथक् है / सामान्य और विशेष दोनों के तादात्म्य का नाम ही पदार्थ है। जैन दार्शनिक मानते हैं कि कार्य कथंचित् सत् है और कथंचित् असत् है / द्रव्य की अपेक्षा से कार्य सत् है और पर्याय की अपेक्षा से असत् / घट का उपादान मिट्टी और मिट्टी रूप से घट का स्वभाव सदा रहता है / अन्वय-व्यतिरेक के सद्भाव में ही कार्य-कारण भाव सिद्ध होता है, सर्वथा क्षणिकवाद में नहीं। इस संदर्भ में बौद्ध दार्शनिकों का कहना है कि जहाँ आगे-आगे सदृश पर्यायों की उत्पत्ति होती जाती है, वहाँ उपादान का नियम होता है। अर्थात् वहाँ पूर्व-पर्याय उत्तर-पर्याय की उपादान होती है और जहा सदृश पदार्थ की उत्पत्ति नहीं होती है, वहाँ उपादान का नियम नहीं होता है। मिट्टी और घट में
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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