SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 199
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैनदर्शन में बौद्धसम्मत 'पर्याय' की समीक्षा 189 वह प्रत्येक देश और प्रत्येक काल में अबाधित ही रहती है और पदार्थ में सामान्य के व्यवहार का हेतु होती है / अतः अनुगताकार का प्रतिभास करने वाली अबाधित बुद्धि अनुगताकाररूप वस्तुभूत सामान्य की सिद्धि करती है। यह कहना भी ठीक नहीं कि सामान्य और विशेष में कोई बुद्धिभेद नहीं है। अन्यथा वात और आताप में भी अभेद मानना पड़ेगा / अतः प्रतिभास भेद ही भेदव्यवस्था का हेतु होता है / वस्तुतः सामान्य और विशेष दोनों का पृथक्-पृथक् अस्तित्व है। अनुगताकार जो सामान्य प्रतिभास होता है, वह बाह्य में साधारण निमित्त गोत्वादि सामान्य के बिना नहीं हो सकता (प्रमेयकमल मार्तण्ड, 4.4-5) / असाधारण व्यक्ति विशेष भी सामान्य प्रतिभास के हेतु नहीं हो सकते, क्योंकि वे तो भेद रूप होने के कारण भेद-प्रतिभास ही करायेंगे। अतत्कार्यकारण व्यावृत्ति भी गायों में गोत्व सामान्य के बिना नहीं बन सकती / यदि अनुगत प्रत्यय सामान्य के बिना भी हो जाता है तो फिर व्यावृत्त प्रत्यय भी विशेष के बिना हो जाने का प्रसंग प्राप्त होगा / अतः सामान्य को परमार्थ सत् मानना युक्तिसंगत है। यहाँ यह भी प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि सामान्य कल्पनात्मक एवं मिथ्या है तो उसको पदार्थ क्यों माना गया तथा सामान्य को विषय करने वाले अनुमान को प्रमाण क्यों माना गया ? जो भी हो अनुगताकार प्रतिभास का आलम्बन वस्तुभूत सामान्य को मानना बौद्धों के लिए अपरिहार्य है / बौद्धों का सामान्य जैनों का द्रव्य है और बौद्धों का विशेष जैनों का पर्याय है / बौद्धदर्शन पर्यायवादी है। वहाँ विशेष के अतिरिक्त सामान्य का सद्भाव नहीं है। अभाव रूप सामान्य को यहा अन्यापोह कहा जाता है और अन्यापोह को शब्द का वाच्य मानते हैं। किन्तु जब अन्यापोह सर्वथा असत् है तो वह शब्द का वाच्य भी नहीं हो सकता / बौद्धों के अनुसार शब्द वस्तु के वाचक नहीं है और न वस्तु शब्द का वाच्य है। शब्दों के द्वारा अन्यव्यावृत्ति का कथन होता है। गो शब्द गाय का वाचक नहीं है, किन्तु अगोव्यावृत्ति को कहता है। पर जैन इसे तथ्य संगत नहीं मानते / उनका कथन है कि गो शब्द को सुनकर साक्षात् गाय का ज्ञान होता है, अन्यव्यावत्ति को नहीं / अतः गाय को ही गो शब्द का वाच्य मानना ठीक है। अगोव्यावृत्ति को नहीं / अन्यापोह में संन्देह भी संकेत नहीं है, क्योंकि न तो उसका कोई स्वभाव है और न वह कोई अर्थक्रिया करता है। इसलिए बौद्धों के द्वारा माना गया असत् सामान्य शब्दों का वाच्य नहीं हो सकता है। बौद्ध यद्यपि धर्मी में स्वतः स्वभावभेद नहीं मानते हैं, किन्तु अन्य व्यावृत्ति के द्वारा स्वभावभेद की कल्पना करते हैं / पर यह तब सही होता जब वहाँ वस्तुभूत असत्, अकृतक आदि रूप कोई पदार्थ होता / जब वैसा कोई पदार्थ ही नहीं है तो उससे किसी की व्यावृत्ति कैसे हो सकती है। बौद्ध दर्शन में धर्म और धर्मी की सिद्धि आपेक्षिक मानी गई है / अतः विशेषण-विशेष्य, कार्यकारण आदि की सिद्धि आपेक्षिक होने से इन सब का व्यवहार काल्पनिक हो जाता है / पर ऐसी स्थिति में बौद्धदर्शन में तत्त्व की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। नील स्वलक्षण और नील ज्ञान परस्पर सापेक्ष हैं, तो वे भी मिथ्या सिद्ध हो जायेंगे। अतः सर्वथा आपेक्षिक सिद्धि मानना ठीक नहीं है / कार्य-कारण, सामान्य-विशेष आदि की सत्ता सर्वथा आपेक्षिक नहीं है, स्वतन्त्र सत्ता है। सर्वथा आपेक्षिक मानने पर दोनों के अभाव का प्रसंग उपस्थित हो जाता है /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy