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________________ 188 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा इस 'सन्तान' को बौद्धदर्शन ने पंक्ति और सेना के समान मृषा और व्यवहारतः कल्पित माना है - सन्तानः समुदायश्च पंक्ति सेनादिवन्मृषा-बोधिचर्यावतार; पर जैनदर्शन ध्रौव्य को परमार्थ सत् मानता है / वह उसे तद्रव्यत्व का नियामक प्रस्थापित करता है / हर पर्याय अपने स्वरूपास्तित्व में रहती है। वह कभी न तो द्रव्यान्तर में परिणत हो सकती है और न विलीन हो सकती है। सन्तान की अन्तिम परिणति तो निर्वाण में चितसन्तति की समूलोच्छिन्नता के रूप में दृष्टव्य है। परन्तु द्रव्य का समूलोच्छेद कभी नहीं होता / वह तो अर्थपर्याय के रूप में परिणमन करता रहता है। 3. द्रव्य, ध्रौव्य और गुण समानार्थक शब्द हैं / ध्रौव्य या द्रव्य में जो अन्वयांश है, वह सन्तान में नहीं। बौद्धदर्शन सामान्य को वस्तु सत् नहीं मानता / वह तो उसे कल्पित मानता है / एकाकार प्रत्यय होने से अभेद दिखाई देने लगता है / वस्तुतः उनमें अभेद नहीं, भेद ही है / एकाकार परामर्श होने का कारण विजातीय व्यावृत्ति है। एक ही गो की अगो व्यावृत्ति होने से गो कहा जाता है, अपशु व्यावृत्त होने से पशु कहा जाता है, अद्रव्य व्यावृत्त होने से द्रव्य कहा जाता है और असद् व्यावृत्त होने से सत् कहा जाता है / इस प्रकार व्यावृत्ति के भेद से जातिभेद की कल्पना की जाती है। जितनी परवस्तुएं हों, उतनी व्यावृत्तियाँ उस वस्तु से कल्पित की जा सकती हैं / अतएव सामान्य बुद्धि का विषय सामान्य नहीं, किन्तु अन्यापोह को ही मानना चाहिए / बौद्धों के इस अवस्तुरूप सामान्यवाद को जैनों ने स्वीकार नहीं किया / उन्होंने अनेकान्तवाद पर आधारित सामान्य की कल्पना की / उनका मत है कि सादृश्य प्रत्यय पर्यायनिष्ठ और व्यक्तिनिष्ठ रहता है, अतः अनेक है। तिर्यक्सामान्य एक काल में अनेक देशों में स्थित अनेक पदार्थों में समानता की अभिव्यक्ति करता है और ऊर्ध्वतासामान्य उसके ध्रौव्यात्मक तत्त्व पर विचार करता है / जैनों का यह सामान्यवाद सांख्य के परिणामवाद से मिलता जुलता है। वेदान्त का ब्रह्माद्वैत और शब्दाद्वैतवाद का शब्दब्रह्म भी लगभग इसी प्रकार का है। नैयायिकों का सामान्य नित्य और व्यापक है, जबकि जैनों का सामान्य अनित्य और अव्यापक है / मीमांसकों का सामान्य अनेकान्तवादी होते हुए भी एकान्तवाद की ओर अधिक झुका हुआ है, बौद्धों ने प्रतीत्य समुत्पाद के माध्यम से पदार्थ को एकान्तिक रूप से क्षणिक माना / जैनाचार्य प्रतीत्य समुत्पाद के स्थान पर उपादानोपादेयभाव को मानते हैं। उनका द्रव्य कूटस्थ नित्य न होकर अन्वयी पर्याय प्रवाह के रूप में अविच्छिन्न है। यही उसका ऊर्ध्वता सामान्य है। वैशेषिक एवं नैयायिकों के समवायिकारण से इसकी तुलना की जा सकती है / जैनदर्शन की दृष्टि गौ इत्यादि रूप से अबाधित प्रत्यय के विषयभूत गोत्वादि सामान्य का अभाव नहीं किया जा सकता है। यदि अबाधित प्रत्ययभूत विषय का असत्त्व माना जाय तो विशेष को भी असत्त्व मानना पड़ेगा / बुद्धि में जो अनुगताकार की प्रतीति होती है, वह किसी भी प्रमाण से बाधित नहीं होती।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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