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________________ 187 इन लक्षणों को पृथक् द्रव्य न मानकर उन्हें प्रवाह रूप मानते हैं। यह प्रवाह ही उनकी स्थिति का सूचक है। सौत्रान्तिक जीवित आयु को द्रव्य नहीं मानते / विज्ञानवादी संस्कृत-असंस्कृत धर्मों को प्रज्ञप्तिसत् मानते हैं / और माध्यमिक उनका निषेध कर निःस्वभावता की सिद्धि करते हैं। बौद्धदर्शन में स्वलक्षण और सामान्य लक्षण दो तत्त्व माने गये हैं / स्वलक्षण का तात्पर्य है - वस्तु का असाधारण तत्त्व / इसमें प्रत्येक परमाणु की सत्ता पृथक् और स्वतंत्र स्वीकार की गई है। इसके साथ ही वह सजातीय और विजातीय परमाणुओं से व्यावृत्त है / परमाणुओं में जब कोई सम्बन्ध ही नहीं, तो अवयवी के अस्तित्व को कैसे स्वीकार किया जा सकता है / 'बौद्ध दर्शन में सामान्य तत्त्व को एक कल्पनात्मक वस्तु माना गया है / परन्तु चूँकि वह स्वलक्षण की प्राप्ति में कारण होता है, अतः मिथ्या होते हुए भी उसे पदार्थ की श्रेणी में रखा गया है। मनुष्यत्व, गोत्व आदि को सामान्य तत्त्व कहा गया है। स्वलक्षण तत्त्व अर्थ-क्रियाकारी है, अतः परमार्थसत् है / पर सामान्य अर्थ-क्रियाकारी नहीं / अतः उसे संवृति सत् माना है (प्रमाण वार्तिक, 2.1-3; 27-28; 50-54) / सामान्य की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, स्वलक्षण प्रत्यक्षगम्य है और सामान्य लक्षण अनुमानगम्य है / अनुमान परोक्ष के अन्तर्गत आता है। जैन दर्शन वस्तु को अनन्तधर्मात्मक सामान्य-विशेषात्मक तथा द्रव्य-पर्यायात्मक मानता है। अतः वहाँ प्रमेय भी एक ही है / वह किसी को स्पष्ट प्रतिभासित होता है और किसी को अस्पष्ट / यह ज्ञाता की शक्ति पर अवलम्बित है। अतः यहाँ भी प्रमेय की प्रतीति प्रत्यक्ष और परोक्ष दोनों रूप से होती है। जैनों का प्रत्यक्ष बौद्धों का स्वलक्षण है और जैनों का परोक्ष बौद्धों का सामान्य है / दोनों मान्यताओं में अन्तर इस प्रकार है - 1. जैनदर्शन वस्तु को अनन्तधर्मात्मक मानता है, जबकि बौद्धदर्शन उसका निषेध करता है / जैनदर्शन की दृष्टि में वस्तु का स्वरूप और पररूप, दोनों सापेक्षिक और वास्तविक हैं, जबकि बौद्धों की दृष्टि में दोनों का अस्तित्व होते हुए भी पररूप कल्पित और वासनाजन्य है / बौद्धदर्शन की दृष्टि में पररूप अर्थ से सम्बद्ध है, पर जैनदर्शन उसे इस स्थिति में अर्थ से कथंचित असम्बद्ध मानता है। बौद्धों ने स्वलक्षण और सामान्यलक्षण के प्रतिपादन में क्षणभंगवाद की स्थापना की है / जैन भी क्षणभंगवाद मानते हैं, पर पर्याय की दृष्टि से / यह पर्याय उत्पाद और व्यय का प्रतीक है। तथागत बुद्ध ने पर्यायों को प्रधानता देकर, त्रैकालिक वस्तु की स्थिरता का निषेध किया है। इसलिए वे ज्ञानपर्याय को तो मानते हैं, किन्तु ज्ञानपर्याय विशिष्ट द्रव्य को नहीं स्वीकार करते। पर जैनदर्शन में दोनों का समन्वय है / दोनों की पारमार्थिकता का समर्थन किया गया है / जैनदर्शन का ध्रौव्य, बौद्धधर्म का 'सन्तान' कहा जा सकता है / ध्रौव्य में उत्पाद-व्यय के माध्यम से न तो शाश्वतवाद और न उच्छेदवाद का प्रसंग उपस्थित होता है और न उसका दूसरे सजातीय या विजातीय द्रव्य रूप से परिणमन होता है। 'सन्तान' भी अपने नियत पूर्वक्षण और नियत उत्तरक्षण के साथ कार्यकारण भाव रूप में सम्बद्ध रहते हैं / अन्तर यह है -
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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