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________________ 182 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा करणानुयोग में यह भी लिखा है कि जीव नित्यनिगोद से दो हजार सागर के लिए निकलता है - उसमें भी दो इन्द्रिय के इतने, तीन इन्द्रिय के इतने, चार इन्द्रिय के इतने भव धारण करता है, मनुष्य के अड़तालीस भव मिलते हैं / यह सब क्या है ? भरतक्षेत्र में जो आगामी चौबीस तीर्थंकर होने वाले हैं, उनके नामों की घोषणायें जिनागम में हो ही चुकी हैं। साथ ही उन जीवों के नाम भी घोषित हो चुके हैं, जिन्हें भावी तीर्थंकर होना है। वह सब निश्चित था तभी तो घोषित हुआ है। जब अपने को प्रथमानुयोग या करणानुयोग का विशेषज्ञ कहने वाले विद्वान भी सम्पूर्ण पर्यायों के क्रमनियमित होने का विरोध करते हैं, तब आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता; क्योंकि प्रथमानुयोग और करणानुयोग में तो कदम-कदम पर इसका प्रबल समर्थन किया गया है / प्रसिद्ध तार्किक आचार्य समन्तभद्र स्वयंभूतस्तोत्र में लिखते हैं - अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिंङ्गा / अनीश्वरो जन्तुरहं क्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादी // 33 // यहाँ भगवान को सम्बोधित करते हुए आचार्य समन्तभद्र कहते हैं कि हे जिनदेव ! आपने यह ठीक ही कहा है कि हेतुद्वय से उत्पन्न होने वाला कार्य ही जिसका ज्ञापक है, ऐसी जो भवितव्यता, उसकी शक्ति अलंध्य है अर्थात् उसकी शक्ति का उल्लंघन नहीं किया जा सकता; जो होना होता है, हो के ही रहता है। फिर भी यह निरीह संसारी प्राणी 'मैं इस कार्य को कर सकता हूँ' - इस प्रकार के अहंकार से पीड़ित रहता है, जबकि भवितव्यता के बिना अनेक सहकारी कारणों को मिलाकर भी कार्य सम्पन्न करने में समर्थ नहीं होता। कषायपाहुड़ व धवल में भी कहा है - प्रश्न - इन (छयासठ) दिनों में दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति किसलिए नहीं हुई ? उत्तर - गणधर का अभाव होने के कारण / प्रश्न - सौधर्म इन्द्र ने उसी समय गणधर को उपस्थित क्यों नहीं किया ? उत्तर - नहीं किया, क्योंकि काललब्धि के बिना असहाय सौधर्म इन्द्र के, उनको उपस्थित करने की शक्ति का उस समय अभाव था / " जैनदर्शन अकर्त्तावादी दर्शन कहा जाता है। अकर्त्तावाद का अर्थ मात्र इतना ही नहीं है कि इस जगत् का कर्ता कोई ईश्वर नहीं है, अपितु यह भी है कि कोई भी द्रव्य किसी अन्य द्रव्य के परिणमन का कर्ता-हर्ता नहीं है / ज्ञानी आत्मा तो अपने विकार का भी कर्ता नहीं होता / यह बात समयसार के कर्ता-कर्म अधिकार एवं सर्वविशुद्धज्ञान अधिकार में विस्तार से स्पष्ट की गई है / स्वकर्तृत्व कहो, सहजकर्तृत्व कहो-सबका एक ही अर्थ है / जैनदर्शन अकर्त्तावादी दर्शन है - इसका भाव यही है कि सहजकर्त्तावादी या स्वकर्त्तावादी है, परकर्त्तावादी या फेरफारकर्त्तावादी नहीं है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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