________________ क्रमबद्धपर्याय 183 सहज होना और करना एक ही बात है। भविष्य में हमारा जो होना है, वही होगा अर्थात् हम पुरुषार्थपूर्वक वही करेंगे / इसमें पुरुषार्थ की कहीं कोई उपेक्षा नहीं हैं, कहीं कोई पराधीनता नहीं है; सर्वत्र स्वाधीनता का साम्राज्य है। इसमें सभी कुछ है - स्वभाव है, पुरुषार्थ है, भवितव्य है, काललब्धि है और निमित्त भी है - पाँचों ही समवाय उपस्थित हैं / इसी बात को यदि वस्तुस्वरूप की ओर से विचार करें, तब भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचेंगे; क्योंकि नित्यता के समान परिणमन भी प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है / जिस वस्तु का जो स्वभाव है, उसके होने में पर के सहयोग की क्या आवश्यकता है ? यदि द्रव्य को अपने परिणमन में पर की अपेक्षा हो तो फिर वह उसका स्वभाव ही क्या रहा ? द्रव्य शब्द ही द्रवणशीलता-परिणमनशीलता का द्योतक है। जो स्वयं द्रवे-परिणमे, उसे ही द्रव्य कहते हैं। प्रत्येक द्रव्य में एक द्रव्यत्व नाम का सामान्यगुण है - शक्ति है / उसके कारण ही द्रव्य परिणमनशील है। परिणमनशील द्रव्य का सामान्य धर्म है, सहज धर्म है, स्वाभाविक धर्म है, परनिरपेक्ष धर्म है। जब प्रत्येक द्रव्य स्वयं अपने से द्रव रहा है, अपने नियमित प्रवाह में बह रहा है, सहज क्रमबद्ध परिणमन कर रहा है, तो फिर ऐसी क्या आवश्यकता है कि वह अपने क्रम को भंग करे ? वस्तु के स्वरूप में ऐसा क्या व्यवधान है कि वह अपनी चाल बदले ? और क्यों बदले ? उसे क्या जरूरत है अपनी चाल बदलने की ? आखिर वस्तुस्वरूप ही सहज स्वीकृति क्यों नहीं, बलात् परिवर्तन का हठ क्यों ? धर्म तो वस्तुस्वरूप की सहज स्वीकृति का नाम है / वस्तुस्वरूप की सहज परिणति की स्वीकृति ही धर्म का आरम्भ है। ऐसे व्यक्ति की दृष्टि सहज अन्तरोन्मुखी होती है। क्रमबद्ध परिणमन की सहज स्वीकृति वाले जीव की क्रमबद्ध में भी सहज स्वभाव-सन्मुख परिणमन होता है / वस्तुस्वरूप में ही ऐसा सुव्यवस्थित सुमेल है। क्रमबद्धपर्याय की प्रतीति बिना दृष्टि का स्वभाव-सन्मुख होना सम्भव नहीं है; क्योंकि पर्यायों में अपनी इच्छानुकूल फेरफार करने का भार उस पर बना रहता है / फेर-फार करने के भार से बोझिल दृष्टि में यह सामर्थ्य नहीं कि वह स्वभाव की ओर देख सके / दृष्टि के सम्पूर्णतः निर्भर हुए बिना अन्तर प्रवेश सम्भव नहीं / जैनदर्शन की मूलाधार सर्वज्ञता ही आज संकट में पड़ गई है। हमारे कुछ धुरंधर धर्मबन्धु पक्षव्यामोह में इतने उलझ गये हैं कि सर्वज्ञता में भी मीनमेख निकालने लगे हैं / आचार्य समन्तभद्र को 'कलिकालसर्वज्ञ' इसलिए ही कहा गया था कि उन्होंने कलिकाल में डंके की चोट पर सर्वज्ञता सिद्ध की थी। वे कोई स्वयं सर्वज्ञ नहीं थे, पर उन्होंने कलिकाल के जोर से संकटापन्न सर्वज्ञता को पुनर्स्थापित किया था; इसलिए वे 'कलिकालसर्वज्ञ' कहलाए। आज फिर कलिकाल जोर मार रहा है, आज युग को फिर एक समन्तभद्र चाहिए; जो डंके की चोट पर सर्वज्ञता को सिद्ध कर सके, पुनः स्थापित कर सके। ___ मोह का नाश कर आत्मश्रद्धान-ज्ञान और आत्मलीनता के इच्छुकजनों को अनन्त पुरुषार्थपूर्वक मर-पच के भी सर्वज्ञता का निर्णय अवश्य करना चाहिए / सर्वज्ञता के निर्णय में क्रमबद्धपर्याय का निर्णय