________________ 180 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा एक ज्ञायकभाव का समस्त ज्ञेयों को जानने का स्वभाव होने से, क्रमशः प्रवर्त्तमान, अनन्त, भूतवर्तमान-भावी विचित्र पर्यायसमूह वाले, अगाधस्वभाव और गम्भीर ऐसे समस्त द्रव्यमात्र को-मानो वे द्रव्य ज्ञायक में उत्कीर्ण हो गये हों, चित्रित हो गये हों, भीतर घुस गये हों, कीलित हो गये हों, डूब गये हों, समा गये हों, प्रतिबिम्बित हो गये हों; इस प्रकार-एक क्षण में ही जो (शुद्धात्मा) प्रत्यक्ष करता है।" __ और भी देखिए - "अलमथवातिविस्तरेण, अनिवारितप्रसरप्रकाशशालितया क्षायिकज्ञानमवश्यमेव सर्वदा सर्वत्र सर्वथा सर्वमेन जानीयात / अथवा अतिविस्तार से बस हो - जिसका अनिवार फैलाव है, ऐसा प्रकाशमान होने से क्षायिकज्ञान अवश्यमेव, सर्वदा, सर्वत्र, सर्वथा, सर्व को जानता है।" सर्वज्ञता की सिद्धि आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में, आचार्य अकलंकदेव ने उसकी टीका अष्टशती में एवं आचार्य विद्यानंदि ने अष्टसहस्त्री में विस्तार से की है। 'सर्वज्ञसिद्धि' जैनन्याशास्त्र का एक प्रमुख विषय है। एक प्रकार से सम्पूर्ण न्यायशास्त्र ही सर्वज्ञता की सिद्धि में समर्पित है। फिर भी जब न्यायविषयक अनेक उपाधियों से विभूषित विद्वद्वर्ग सर्वज्ञता में भी आशंकाएं व्यक्त करने लगता है या उसकी नई-नई व्याख्यायें प्रस्तुत करने लगता है, तो आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता / सर्वज्ञ भगवान का भविष्य सम्बन्धी ज्ञान 'पढ़ेगा तो पास होगा' के रूप में अनिश्चयात्मक न होकर 'यह पढ़ेगा और अवश्य पास होगा' अथवा 'नहीं पढ़ेगा और पास भी नहीं होगा' के रूप में निश्चयात्मक होता है। भविष्य को निश्चित मानने में अज्ञानी को वस्तु की स्वतंत्रता खण्डित होती प्रतीत होती है; पर उसका ध्यान इस ओर नहीं जाता कि भविष्य को अनिश्चित मानने पर ज्योतिष आदि निमित्तज्ञान काल्पनिक सिद्ध होंगे, जबकि सूर्यग्रहण आदि की घोषणाएँ वर्षों पहले कर दी जाती हैं, और वे सत्य निकलती हैं। अवधिज्ञान और मनःपर्यायज्ञान भी अपनी सीमा में भविष्य को जानते ही हैं / लाखों वर्षों आगे के भविष्य की निश्चित घोषणाओं से सर्वज्ञ-कथित जिनागम भरा पड़ा है और वे समस्त घोषणाएँ ‘ऐसा ही होगा' की भाषा में हैं / सर्वज्ञ की भविष्यज्ञता से इंकार करने का अर्थ समस्त जिनागम को तिलाञ्जलि देना होगा। ___ इस प्रकार जैनदर्शन के सर्वमान्य आचार्य श्री कुन्दकुन्द, कार्तिकेय, समन्तभद्र, उमास्वामी, पूज्यपाद, वीरसेन, अमृतचन्द्र, रविषेण आदि अनेक दिग्गज आचार्यों के प्रबल प्रमाणों से सर्वज्ञता और त्रिकालज्ञता सहज सिद्ध है। उपर्युक्त अनेक प्रमाण देने के बाद भी लोगों को आग्रह रहता है कि आप हमें स्पष्ट रूप से बताइये कि क्रमबद्धपर्याय की बात कौन से शास्त्र में है ? पर मेरा कहना है कि ऐसा कौनसा शास्त्र है, जिसमें क्रमबद्धपर्याय की बात नहीं है ? चारों ही अनुयोगों के शास्त्रों में यहाँ तक कि पूजन-पाठ में भी कदमकदम पर क्रमबद्धपर्याय का स्वर मुखरित होता सुनाई देता है /