________________ क्रमबद्धपर्याय 179 चूँकि अभी तक सर्वज्ञ की सत्ता स्वीकार करता रहा है; अतः एकदम तो उससे मुकर नहीं पाता; अतः सर्वज्ञता की व्याख्यायें बदलने लगती है। कभी कहता है कि वे भूतकाल और वर्तमान को तो जानते हैं, पर भविष्य को नहीं; क्योंकि भूतकाल में तो जो कुछ होना था, सो हो चुका और वर्तमान में जो होना है, वह हो ही रहा है; अतः उन्हें जानने में तो कोई आपत्ति नहीं; पर भविष्य की घटनाएँ जब अभी घटित ही नहीं हुई तो उन्हें जानेंगे ही क्या? कभी कहता है कि भविष्य को जानते तो हैं, किन्तु सशर्त जानते हैं। जैसे-जो पुण्य करेगा वह सुखी होगा और जो पाप करेगा वह दुःखी होगा। जो पढ़ेगा वह पास होगा और जो नहीं पढ़ेगा वह पास नहीं होगा-आदि न जाने कितने रास्ते निकालता है / पर उसका यह प्रयास निष्फल ही रहता है; क्योंकि कोई रास्ता है ही नहीं तो निकलेगा कहाँ से? यह कैसे हो सकता है वह सर्वज्ञ तो माने, पर भविष्यज्ञ नहीं / सर्वज्ञ का अर्थ त्रिकालज्ञ होता है। जो भविष्य को न जान सके वह कैसा सर्वज्ञ ? सर्वज्ञ की व्याख्या तो ऐसी है कि जो सबको जाने सो सर्वज्ञ / कहा भी है - "सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवल्य - केवलज्ञान का विषय तो समस्त द्रव्य और उनकी तीनकाल सम्बन्धी समस्त पर्यायें हैं।" ___ जो कुछ हो चुका है, हो रहा है और भविष्य में होने वाला है; सर्वज्ञ भगवान के ज्ञान में तो वह सब वर्तमानवत् स्पष्ट झलकता है / आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं - "जदि पच्चक्खमजादं पज्जायं पलयिदं व णाणस्स / ण हवदि वा तं णाणं दिव्वं ति हि के परूवेंति // यदि अनुत्पन्न (भविष्य की) और विनष्ट (भूत की) पर्याय सर्वज्ञ के ज्ञान में प्रत्यक्ष न हों तो उस ज्ञान को दिव्य कौन कहेगा ?" - धवला पुस्तक 6 में इसी बात को इस प्रकार व्यक्त किया है - "णट्ठाणुप्पण्ण अत्थाणं कधं तदो परिच्छेदो / ण, केवलत्तादो बज्झत्थावेक्खाए विणा तदुप्पत्तीए विरोहाभाव / प्रश्न - जो पदार्थ नष्ट हो चुके हैं और जो पदार्थ अभी उत्पन्न नहीं हुए हैं, उनका केवलज्ञान से कैसे ज्ञान हो सकता है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि केवलज्ञान के सहाय-निरपेक्ष होने से बाह्य पदार्थों की अपेक्षा के बिना उनके (विनष्ट और अनुत्पन्न के) ज्ञान की उत्पत्ति में कोई विरोध नहीं है / " आचार्य अमृतचन्द्र ने सर्वज्ञ द्वारा समस्त ज्ञेयों को एक क्षण में सम्पूर्ण गुण और पर्यायों सहित अत्यन्त स्पष्टरूप से प्रत्यक्ष जानने की चर्चा इस प्रकार की है - "अथैकस्य ज्ञायकभावस्य समस्तज्ञेयभावस्वभावत्वात् प्रोत्कीर्णलिखतनिखातकीलितमज्जितसमा-वर्तित प्रतिबिम्बितवत्तत्र क्रमप्रवृत्तानन्तभूतभवद्भा-विविचित्रपर्यायप्राग्भारमगाधस्वभावं गम्भीरं समस्तमपि द्रव्यताजातमेकक्षण एव प्रत्यक्षयन्तं / '