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________________ 178 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा एवं जो णिच्छयदो जाणदि दव्वाणि सव्वपज्जाए / सो सद्दिठी सुद्धो जो संकदि सो हु कुद्दिट्ठी // 323 // जिस जीव के, जिस देश में, जिस काल में, जिस विधान से, जो जन्म अथवा मरण जिनदेव ने नियतरूप से जाना; उस जीव के, उसी देश में, उसी काल में, उसी विधान से, वह अवश्य होता है / उसे इन्द्र अथवा जिनेन्द्र कौन टालने में समर्थ है ? अर्थात् उसे कोई नहीं टाल सकता है / इस प्रकार निश्चय से जो द्रव्यों को और उनकी समस्त पर्यायों को जानता है; वह सम्यग्दृष्टि है और जो इसमें शंका करता है, वह मिथ्यादृष्टि है / " जिनागम में और भी अनेक स्थानों पर इस प्रकार भाव व्यक्त किया गया है - "प्रागेव यदवाप्तव्यं येन यत्र यथा यतः / तत्परिप्राप्यतेऽवश्यं तेन तत्र तथा ततः // जिसे जहाँ, जिस कारण से, जिस प्रकार से, जो वस्तु प्राप्त होनी होती है; उसे वहाँ, उसी कारण से, उसी प्रकार, वही वस्तु अवश्य प्राप्त होती है / जो-जो देखी वीतराग ने, सो-सो होसी वीरा रे / बिन देख्यो होसी नहिं क्यों ही, काहे होत अधीरा रे // समयो एक बढे नहिं घटसी, जो सुख-दुख की पीरा रे / तू क्यों सोच करे मन कूड़ो, होय व्रज ज्यों हीरा रे // तथा जा करि जैसें जाहि समय में, जो होतव जा द्वार / सो बनिहै टरिहै कुछ नाही, करि लीनौं निरधार // हमकौं कछु भय ना रे, जान लियो संसार // टेक // उक्त प्रकरणों में प्रायः सर्वत्र ही सर्वज्ञ के ज्ञान को आधार मानकर, भविष्य को निश्चित निरूपित किया गया है और उसके आधार पर अधीर नहीं होने का एवं निर्भय रहने का उपदेश दिया गया है। स्वामी कार्तिकेय ने तो ऐसी श्रद्धा वाले को ही सम्यग्दृष्टि घोषित किया है और इस प्रकार नहीं मानने वाले को मिथ्यादृष्टि कहने में भी उन्हें किंचित् भी संकोच नहीं हुआ / इस प्रकार हम देखते हैं कि 'क्रमबद्धपर्याय' की सिद्धि में सर्वज्ञता सबसे प्रबल हेतु है / निष्पन्न पर्यायों की क्रमबद्धता स्वीकार करने में तो जगत् को कोई बाधा नजर नहीं आती; किन्तु जब अनिष्पन्न भावी पर्यायों को भी निश्चित कहा जाता है तो जगत् चौंक उठता है। उसे लगता है कि यदि सब कुछ निश्चित ही है तो फिर हमारा यह करना-धरना सब बेकार है / कर्तृत्व के अभिमान की जिस दीवार को वह ठोस आधार मानकर खड़ा था, अकड़ रहा था; जब वह ढहती नजर आती है, तो एकदम बौखला जाता है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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