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________________ पज्जमूढा हि परसमया 155 स्कन्धों की गुणपर्यायें-काला, नीला, पीला आदि तथा सुगन्ध, दुर्गन्ध आदि पर्यायें समानजातीय विभावगुणपर्यायें हैं और कर्मोदयजनित या कर्म सापेक्ष जीव को गुण-पर्यायें विभावगुणपर्यायें हैं / जैसेज्ञानगुण की अज्ञान रूप का अल्पज्ञान रूप पर्याय श्रद्धान गुण को मिथ्यादर्शरूप पर्याय, चारित्र की रागद्वेष, कषाय रूप पर्यायें आदि असमानजातीय विभावगुण पर्यायें कही जा सकती हैं। सामान्यतया गुणपर्यायों के समानजातीय और असमानजातीय भेद नहीं किये गये हैं, परन्तु इस प्रकार भेद करने में कोई आपत्ति तो नहीं होनी चाहिए / हाँ, मिथ्यादृष्टि जीव इन्हीं समानजातीय, असमानजातीय द्रव्यपर्यायों और गुणपर्यायों का रूप विभावपर्यायों में ही उलझा हुआ है, इन्हीं के इष्ट-अनिष्ट की कल्पना करके, अनादिकाल से मिथ्यात्व युक्त राग-द्वेष-मोह करके, अपने असंकीर्ण द्रव्य-गुण-पर्याय मय स्वरूप का अनुभव नहीं करता, आश्रय नहीं करता है, इसे ही आचार्यदेव ने 'पज्जयमूढ़ा हि परसमया' कहा है / इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए कुन्दकुन्द द्रव्य-गुण-पर्याय-तीनों के मूढभाव की चर्चा भी करते हैं "दव्वादिएसु मूढो भावो जीवस्य हविद मोहो ति / खुब्भदि तेणुच्छण्णो यप्पा रागं व दोसं वा / 39 अर्थ - जीव का द्रव्यादि (द्रव्य-गुण-पर्याय) सम्बन्धी मूढभाव 'मोह' कहलाता है, उससे आच्छादित वर्तता हुआ जीव राग-द्वेष को प्राप्त करके क्षुब्ध होता है।" इसका गंभीर स्पष्टीकरण आचार्य अमृतचन्द्र ने किया है - "धतूरा खाए हुए मनुष्य की भाँति, जीव के पूर्व वर्णित द्रव्य-गुण-पर्याय हैं, उनमें होने वाला तत्त्व-अप्रतिपत्ति लक्षण वाला मूढभाव वास्तव में मोह है / उस मोह से अपना निजस्वरूप आच्छादित होने से यह आत्मा परद्रव्य को स्वद्रव्यरूप से, परगुण को स्वगुणरूप से और परपर्यायों को स्वपर्यायरूप समझकर-अंगीकार करके, अतिरूढ़-दृढतर संस्कार के कारण परद्रव्य को ही सदा ग्रहण करता हुआ, दग्ध इन्द्रियों की रुचि के वश से अद्वैत में भी द्वैत प्रवृत्ति करता हुआ, रुचिकर-अरुचिकर विषयों में रागद्वेष करके अतिप्रचुर जलसमूह के वेग से प्रहार को प्राप्त सेतुबन्ध (पुल) की भाति दो भागों में खण्डित होता हुआ, अत्यन्त क्षोभ को प्राप्त होता है; इससे मोह, राग और द्वेष - इन भेदों के कारण मोह तीन प्रकार का है।"३२ परमात्मप्रकाशकार मुनिराज योगीन्द्रदेव इस पर्यायमूढ़ता के सम्बन्ध में अपभ्रंश भाषा में कहते हैं "पज्जयस्तउ जीवडउ मिच्छादिट्टि हवेइ / बंधइ बहुविधकम्माणि जेण संसारे भमेइ // 23 ___ अर्थ - शरीर आदि पर्यायों में रत जीव मिथ्यादृष्टि होता है, तथा वह अनेक प्रकार के कर्मों को बाँधता हुआ संसार में भ्रमण करता रहता है।"
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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