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________________ 156 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा परद्रव्य से संयुक्त पर्याय में मूढ़ता का स्वरूप कभी-कभी इतना विद्रूप हो जाता है कि उसमें स्वद्रव्य-गुण-पर्याय का अंश भी अवशिष्ट नहीं रहता और वह जीव परद्रव्य-गुण-पर्याय को ही अपना स्वरूप मानने लगता है उसी में लीन रहता है - इसे मोक्षपाहुड़ में इस प्रकार कहा है - "जो पुण परदव्वरओ मिच्छादिट्ठी हवेई सो साहू / मिच्छत्तपरिणदो उण बज्झदि दुछुट्टकम्मेहिं // 4 अर्थ - परद्रव्य में रत साधु मिथ्यादृष्टि है और मिथ्यात्व रूप परिणत हुआ वह दुष्ट आठ कर्मों से बन्धन को प्राप्त होता है। इसी प्रकरण में आचार्य ने यह भी कहा है कि "स्वद्रव्य में रत साधु नियम से सम्यग्दृष्टि होता है और सम्यक्त(क्त्व) रूप परिणत हुआ वह दुष्ट आठ कर्मों को नष्ट करता है" आचार्य देव के उपदेशात्मक वचन भी इसी बात के द्योतक हैं - "परदव्वादो दुग्गई, सद्दव्वादो हु सुग्गई होइद / इय णादुण सदव्वे, कुणह रईविरह इयरम्मि // 35 अर्थ - परद्रव्य के लक्ष्य से दुर्गति होती है और स्वद्रव्य के लक्ष्य से सुगति होती है-यह स्पष्ट जानो; इसलिए हे भव्य जीवों ! तुम ऐसा जानकर, स्वद्रव्य में रति करो और अन्य पर द्रव्यों से विरक्त होओ।" उक्त गाथा में प्रयुक्त पद - 'परदव्वादो दुग्गई' और 'सद्दव्वादो सुग्गइ" भी किसी सूक्ति वचन से कम नहीं हैं। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि परद्रव्य से दुर्गति होती है - इसका तात्पर्य यही है कि परद्रव्य के लक्ष्य से, आश्रय करने से, प्रीति करने से दुर्गति होती है; इसी प्रकार स्वद्रव्य से अर्थात् स्वद्रव्य का आश्रय करने से, उसका लक्ष्य करने से, उसका श्रद्धान, ज्ञान, आचरण करने से सुगति अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा यदि कोई कमजोरी रह जाये तो सुगति अर्थात् स्वर्गादि की प्राप्ति होती हैऐसा समझना चाहिए। 'पज्जयमूढा हि परसमया' - इस पद का यथार्थ भाव न समझकर बहुत से कथित ज्ञानी यह अर्थ करते देखे जाते हैं कि हमें पर्याय को जानना ही नहीं चाहिए, क्योंकि उससे पर्यायमूढ़ता हो जायेगी। मेरा उन कथित ज्ञानियों से आग्रहपूर्ण निवेदन है कि ऐसा करके हम अपने पैर पर स्वयं कुल्हाड़ी मार लेंगे, क्योंकि द्रव्य-गुण तो अव्यक्त हैं; अतः अव्यक्त द्रव्य-गुण तक पहुँचने का एकमात्र माध्यम पर्याय ही है, इसी पर्याय के द्वारा हम जगत् की समस्त वस्तुओं तक, अनेक द्रव्य व गुणों तक पहुँच सकते हैं, क्योंकि वही व्यक्त है / 36 यदि हमने उसी को जानने से मना कर दिया तो हम उस एकमात्र सूत्र (सुराग) से हाथ धो बैठेंगे, जो हमारी द्रव्य-गुण की खोज में सहायक बन सकता है। हाँ, हम मूढ़-अज्ञानियों के समान पर्यायमात्र को ही वस्तु न मान लेवें, इसका ध्यान तो रखना होगा। जैसे-किसी बहुत बड़े तस्करों के गिरोह के लीडर (नेता) को पकड़ना हो और हमें उसी गिरोह
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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