SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 154 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा उपरोक्त कथन के माध्यम से यह स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य जो असंकीर्ण द्रव्य-गुण-पर्याय में स्थित है, उसे तो भगवान आत्मा सम्बोधन से संबोधित कर रहे हैं तथा पर्यायमूढ़ता वाली पर्याय में कर्मोदयजनित पर्याय, जीव-पुद्गलात्मक असमानजातीय पर्याय, परद्रव्य की संगति आदि विशेषणों के प्रयोग कर रहे हैं / तात्पर्य यह है कि जो पर्याय परद्रव्य की संगति से रहित है, वह तो असंकीर्ण द्रव्य-गुणपर्याय के अन्तर्गत आती है तथा जो परद्रव्य की संगति से सहित है, वह पर्यायमूढ़ता का विषय बनती है, दोनों में महान अन्तर है। द्रव्य-गुण-पर्याय में यह जीव सामान्यतः द्रव्य एवं गुण के प्रति मूढ़ता नहीं करता, क्योंकि द्रव्यगुण तो अन्तरंग तत्त्व हैं, हमें उनका साक्षात् दर्शन ही नहीं होता, क्योंकि वे हमारे सामने सीधे-सीधे नहीं आते, हमारे सामने तो उनकी कोई न कोई पर्याय आती है, अथवा वे द्रव्य का गुण किसी न किसी पर्याय के रूप में प्रगट होते हैं, इस प्रकार हम द्रव्य गुण को अव्यक्त और पर्याय को व्यक्त भी कह सकते हैं / 25 ___ यद्यपि द्रव्य-गुण तो मूलतत्त्व हैं, लेकिन जिस प्रकार वृक्ष की मूल दिखाई नहीं देती, ऊपरऊपर के फूल-पत्ते आदि ही दिखाई देते हैं; उसी प्रकार वस्तु के द्रव्य-गुण वृक्ष की मूल(जड़) के समान दिखाई नहीं देते, उन दोनों के कारण प्रकट होने वाली, तथा थोड़े ही समय तक टिकने वाली पर्याय ही दिखाई देती है तथा यह मिथ्यादृष्टि जीव इसी पर्यायमात्र को ही सम्पूर्ण वस्तु मानकर अपना सम्पूर्ण व्यवहार निश्चित करता है / पर्याय के भी दो भेद हैं - एक स्वभावपर्याय और दूसरी विभावपर्याय२६ / स्वभावपर्याय तो स्वद्रव्य या स्वगुण से प्रकट होने वाली पर्याय है, अतः शुद्ध है; इनमें भी एक तो कारणस्वभावपर्याय या कारणशुद्धपर्याय है, जो अनादि अनन्त एकरूप है, परमपारिणामिक भाव स्वरूप है तथा दूसरी कार्यस्वभावपर्याय या कार्यशुद्धपर्याय है, जो कार्यशुद्धपर्याय का आश्रय करके प्रकट होती है, परन्तु स्वयं कार्यस्वरूप है, अतः कारणशुद्धपर्याय कहलाती है। उक्त दोनों स्वभावपर्यायें द्रव्यरूप भी हैं और गुणरूप भी हैं / जैसे सिद्धपर्याय स्वभाव द्रव्य पर्याय है और केवलज्ञानादि स्वभाव-गुणपर्याय हैं / इसका विस्तृत विवेचन नियमसार ग्रन्थ में किया गया है / 29 लेकिन मिथ्यादृष्टि जीव को द्रव्य-गुण के साथ इस स्वभावपर्याय का भी कुछ पता नहीं है, अतः इन पर्यायों में भी मूढ़ता करने का कोई प्रसंग नहीं है, मिथ्यादृष्टि तो पर्यायों में भी विभावपर्यायों में ही निरत है, लीन है, मूढभाव सहित एकमेक हो रहा है, मोहित हो रहा है। विभावपर्याय परद्रव्य सापेक्ष पर्याय को कहते हैं, इसके भी विभाव-द्रव्यपर्याय और विभावगुणपर्याय के रूप में दो भेद किये जाते हैं। विभावद्रव्यपर्याय को विभावव्यञ्जनपर्याय आदि नामों से भी अभिहित किया जाता है। इसके भी दो भेद हैं / 1. समानजातीय और 2. असमानजातीय / 30 पुद्गलद्रव्यों की स्कन्धरूप पर्याय समानजातीय विभावद्रव्यपर्याय या विभाव व्यञ्जन पर्याय है और जीवपुद्गल की मिश्र रूप मनुष्य आदि रूप संसारी पर्यायें भी परद्रव्य के निमित्त से होने वाली गुणपर्यायों को विभावगुणपर्याय कहते हैं, इसके भी समानजातीय और असमानजातीय भेद किये जा सकते हैं / जैसे
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy