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________________ 150 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा इस विषय के प्रतिपादन में कहीं भी कोई भूल-चूक हो तो कृपया मुझे अवश्य अवगत करायें, क्योंकि जिनशासन समुद्र की भाँति विशाल एवं गंभीर है / इस विषय का सामान्यतः अवलोकन करने पर एक यक्ष प्रश्न सर्वप्रथम उभरकर सामने आता है कि यदि पर्यायमूढ़ता करने से हम परसमय होते हैं, या मिथ्यादृष्टि होते हैं तो हम पर्याय के स्वरूप को जानें ही क्यों ? परन्तु मेरा निवेदन है कि यदि पर्यायमूढ़ता दूर करनी है तो उसके लिए भी हमें पर्याय का स्वरूप जानना आवश्यक है; क्योंकि हमें जिसे ग्रहण करना है, उसे भी जानना जरूरी है; जिसे छोड़ना है, उसे भी जानना जरूरी है तथा जिसके प्रति उपेक्षाभाव रखना है, उसे भी जानना जरूरी है। कहा भी है - 'अज्ञाननिवृत्तिः हानोपादानोपेक्षाश्च फलम् / ' विषय सम्बन्धी अज्ञान की निवृत्ति तो उसका साक्षात् फल है ही; अतः हम यह निर्धारण बाद में करेंगे कि हमें इस विषय को जानने के बाद क्या करना है? ग्रहण करना है ? या त्याग करना है ? या उपेक्षा करनी है ? सर्वप्रथम तत्सम्बन्धी अपने अज्ञान की निवृत्ति करके साक्षात् फल को प्राप्त करना हमारा अभीष्ट है। __ सामान्यतः 'मूढ़ता' शब्द का प्रयोग सम्यग्दर्शक के 25 मूल दोषों के अन्तर्गत तीन प्रकार की मुढ़ताओं में किया जाता है। उनके नाम है-देवमूढ़ता', गुरूमूढ़ता और लोकमूढ़ता / इसी प्रकार मूलाचार में चार प्रकार की मूढ़ताओं का वर्णन किया गया है - लौकिक मूढ़ता, वैदिकमूढ़ता, समयमूढ़ता और देवमूढ़ता / लेकिन इन सभी मूढ़ताओं के विश्लेषण में 'पर्यायमूढ़ता' का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आध्यात्मिक विषयों के प्रतिपादक आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने प्रवचनसार ग्रन्थ के ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन नामक द्वितीय महाधिकार की सर्वप्रथम दो गाथा में इसका उल्लेख किया है / वे कहते हैं - "अत्थो खलु दव्वमओ दव्वाणि गुणप्पगाणि भणिदाणि / तेहिं पुण पज्जाया पज्जायमूढ़ा हि परसमय // 93 // जे पज्जयेसु णिरदा जीवा पदसमइग ति णिद्दिढें / आदसहावम्हि ठिदा ते समसमया मणेदव्वा // 94 // " अर्थ - पदार्थ द्रव्यस्वरूप है, द्रव्य गुणात्मक कहे गये हैं और द्रव्य तथा गुणों से पर्यायें होती हैं, लेकिन पर्यायमूढ जीव परसमय हैं। जो जीव पर्यायों में लीन हैं, उन्हें परसमय कहा गया है तथा जो जीव आत्मस्वभाव में स्थित हैं, उन्हें स्वसमय जानना चाहिए। उक्त पर्यायमूढता या परसमय की चर्चा करने से पूर्व मूढता के विषय में कुछ जानना आवश्यक है। कोश ग्रन्थों में 'मूढ' शब्द के अनेक अर्थ दिए गये हैं / जैसे-मूर्ख, मुग्ध अज्ञानी, भ्रष्ट बुद्धिवाला, मतिभ्रष्ट, अजान, बेवकूफ, स्तब्ध, चकित१२ आदि / वामन शिवराम आप्टे कृत संस्कृत-हिन्दी कोश में 'मूढ' शब्द के छह प्रकार से अर्थ दिये हैं - "(भूतकालिक कर्मवाचक कृदन्त-मुह्+क्त) 1. जड़ीभूत, मोहित 2. उद्विग्न, व्याकुल, विह्वल, सूझबूझ से हीन जैसे - किंकर्तव्यतामूढ 3. नासमझ, मूर्ख, मन्दबुद्धि,
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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