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________________ पर्याय मात्र को ग्रहण करने वाला नय : ऋजुसूत्रनय 139 के इसी लक्षण को ही आगे के अधिकांश आचार्यों ने संक्षिप्त तथा विस्तार पूर्वक समझाया। उनमें वाचक उमास्वाति, आचार्य सिद्धसेन, पूज्यपाद, अकलंकदेव, वीरसेन, विद्यानन्द, देवसेन, सिद्धर्षि, माइल्लधवल, वादिराजसूरि, प्रभाचन्द्र, वादिदेवसूरि, मल्लिषेण तथा उपाध्याय यशोविजय प्रमुख हैं / लघु अनन्तवीर्य के अनुसार 'प्रतिपक्ष की अपेक्षा रहित शुद्ध पर्याय को ग्रहण करने वाला ऋजुसूत्र नय है।' इस प्रकार की परिभाषा मात्र इन्होंने ही दी / वैसे यहाँ शुद्ध पर्याय से तात्पर्य वर्तमानक्षणवर्ती अर्थपर्याय से ही है जिसका ग्रहण वर्तमान के क्षणमात्र में ही होता है / अतः लघु अनन्तवीर्य का अभिप्राय भी लगभग वही है जो अन्य जैनाचार्यों का रहा / 2. आचार्य सिद्धसेन ने ऋजुसूत्रनय को पर्यायास्तिक नय का मूल आधार कहा और उसके बाद प्रवृत्त होने वाले शब्द, समभिरूढ़ तथा एवंभूतनय को इसी ऋजुसूत्र नय के भेद के रूप में मान्यता प्रदान की / धवलाकार वीरसेनाचार्य ने सर्वप्रथम ऋजुसूत्रनय के दो भेद किये - (1) शुद्ध ऋजुसूत्रनय - जो सूक्ष्म सत् की स्वतन्त्र सत्ता को विषय करता है। इसे सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय भी कहते हैं / (2) अशुद्ध ऋजुसूत्रनय - जो विशेषों की एकता को ग्रहण करके उसकी स्वतन्त्र सत्ता को विषय करता है / इसे स्थूल ऋजुसूत्रनय भी कहते हैं / अर्थात् शुद्ध ऋजुसूत्र नय अर्थ पर्याय को ग्रहण करता है और अशुद्ध ऋजुसूत्रनय व्यञ्जन पर्याय को ग्रहण करता है। आगे के आचार्यों में देवसेन तथा माइलधवल इसी प्रकार के भेद करते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि पर्याय के जितने भी प्रकार हो सकते हैं, उनको नयवाद अपनी एक अभिव्यक्ति देता है / ऋजुसूत्र नय पर्याय को ही विषय करता है, उसकी दृष्टि सम्यक् एकान्त की इसलिए है, क्योंकि वह द्रव्य का निषेध नहीं करता बल्कि उसे गौण कर देता है / संदर्भ 1. पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ णयविही मुणेयव्वो / - अनुयोगद्वार सूत्र, नयनिरूपण, गाथा-१३९, पृ०४६७ 2. पच्चुप्पन्नग्गाही उज्जुसुओ नयविहीमुणे अव्वे // - विशेषावश्यक भाष्य, भाग-२, गाथा-२१८४, पृ०४४८ 3. सत्तं साम्प्रतानामर्थनामभिधानपरिज्ञानमजुसूत्रः / ....तेष्वेव-सत्सु साम्प्रतेषु सम्प्रत्ययः ऋजुसूत्रः // - तत्त्वार्थाधिगमभाष्य, 1/25, पृ०६१, 63 4. मूलणिमेणं पुज्जुवणयस्स उज्जुसुवयणविच्छेदो / - सन्मति प्रकरण प्रथमकाण्ड गाथा - 4, पृ०३ ऋजुं प्रगुणं सूत्रयति तन्त्रयतीति ऋजुसूत्रः / पूर्वापरांस्त्रिकालविषयानतिशय्यवर्तमान-कालविषयानादते अतीतानागतयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहारभावात् / तच्च वर्तमान समयमात्रम् / द्विषयपर्यायमात्रग्राह्यमजुसूत्रः / ननु संव्यवहारलोपसंग इति चेद् ? न, अस्य नयस्य विषयमात्रप्रदर्शनं क्रियते / सर्वनयसमूहसाध्यो हि लोकसंव्यवहारः / - सर्वार्थसिद्धि, प्र० अ० सूत्र-३३, प्र०२४५, पृ०१०२ 6. सूत्रपातवद्रजुत्वात् ऋजुः सूत्रः, यथा ऋजुः सूत्रपातस्तथा ऋजुप्रगुण सूत्रयति तन्त्रयति ऋजुसूत्रः / पूर्वास्त्रिकालविषयानतिशय्य वर्तमानकालविषमादत्ते / अतीतानागातयोविनष्टानुत्पन्नत्वेन व्यवहारभावात् /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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