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________________ 138 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा है, इसलिए वास्तव में तो एक पर्याय एक समय तक ही रहती है। उस एक समयवर्ती पर्याय को अर्थ पर्याय कहते हैं / वह अर्थपर्याय सूक्ष्म-ऋजुसूत्रनय का विषय है / 02. स्थूल ऋजुसूत्रनय (अशुद्ध ऋजुसूत्रनय) स्थूल ऋजुसूत्रनय विशेषों की एकता को ग्रहण करके उसकी स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है। व्यञ्जन पर्याय की स्वतन्त्र सत्ता इसका विषय है / वीरसेनाचार्य के अनुसार अशुद्ध ऋजुसूत्रनय चक्षु इन्द्रियों की विषयभूत व्यञ्जन पर्यायों को विषय करने वाला है। उन पर्यायों का काल जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कृष्टतः छह माह अथवा संख्यात वर्ष तक है, क्योंकि चक्षुइन्द्रिय से ग्राह्य व्यञ्जनपर्यायें द्रव्य की प्रधानता से रहित होती हुई इतने काल तक अवस्थित पायी जाती है / 29 देवसेनाचार्य कहते हैं कि अपनी-अपनी स्थिति प्रमाण काल में वर्तमान अर्थात् जन्म से मरण पर्यन्त मनुष्यादि पर्यायों को जो उतने काल तक के लिए टिकने वाला एक स्वतन्त्र पदार्थ मानता है, वह स्थूल ऋजुसूत्र नय है / 30 वे आलापपद्धति में कहते हैं कि जो नय अनेक समयवर्ती स्थूलपर्याय को विषय करता है, वह स्थूल ऋजसत्रनय है। जैसे-मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी आय-प्रमाण काल तक रहती हैं / 31 देवसेन भद्रारक मानते हैं कि मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी स्थिति काल तक रहती है। उतने काल तक मनुष्य आदि कहना स्थल ऋजसत्र नय है / 32 नर-नारक आदि और घट-घट आदि व्यञ्जन पर्यायों में जीवन और पदगल नामक पदार्थ परिणत हुए हैं। इस प्रकार का विषय स्थूल ऋजुसूत्र नय का है। व्यञ्जन पर्याय की अपेक्षा आरम्भ से अवसान तक वर्तमान पर्याय निश्चय करना चाहिए / 33 माइल्लधवल के अनुसार जो अपनी स्थिति पर्यन्त रहने वाली मनुष्य आदि पर्याय को उतने समय तक मनुष्य रूप से ग्रहण करता है, वह स्थूलऋजुसूत्रनय है / 34 भावार्थ यह है कि व्यवहार में एक स्थूल पर्याय को छोड़कर जो वर्तमान पर्याय को ही ग्रहण करता है, उस ज्ञान और वचन को ऋजुसूत्रनय कहते हैं। प्रत्येक वस्तु प्रति समय परिणमनशील है, इसलिए वास्तव में तो एक पर्याय एक समय तक ही रहती है। उस एक समयवर्ती पर्याय को अर्थ पर्याय कहते हैं / वह अर्थपर्याय सूक्ष्म-ऋजुसूत्रनय का विषय है। भावार्थ यह है कि व्यवहार में एक स्थूल पर्याय जब तक रहती है, तब तक लोग उसे वर्तमान पर्याय कहते हैं, जैसे मनुष्य पर्याय आयुपर्यन्त रहती है। ऐसी स्थूलपर्याय को स्थूलऋजुसूत्रनय ग्रहण करता निष्कर्ष - 1. पर्याय को ग्रहण करने तथा द्रव्य को गौण करने वाला ऋजुसूत्रनय का लक्षण ऐतिहासिक विकासक्रम में हमें निम्न रूप से प्राप्त होता है। (अ) अनुयोगद्वार सूत्र में कहा है कि "ऋजुसूत्रनय विधि-प्रत्युत्पन्नग्राही अर्थात् वर्तमान पर्याय को ग्रहण करने वाला / " विशेषावश्यक भाष्य भी इसका समर्थन करता है। ऋजुसूत्रनय
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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