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________________ 132 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा 1. सच्चे निरूपण को निश्चय और उपचरित निरूपण को व्यवहार कहते हैं। 2. एक ही द्रव्य के भाव को उस रूप ही कहना निश्चय नय है और उपचार से युक्त द्रव्य के भाव को अन्य द्रव्य के भावरूप कहना व्यवहारनय है / 3. जिस द्रव्य की परिणति हो, उसे उस ही का कहना निश्चय नय है और उसे ही अन्य द्रव्य का कहने वाला व्यवहार नय है / 4. व्यवहार नय स्वद्रव्य को, पर-द्रव्य को व उनके भावों को व कारण कार्यादिक को किसी को किसी में मिलाकर निरूपण करता है तथा निश्चय नय उन्हीं को यथावत् निरूपण करता है, किसी को किसी से नहीं मिलाता है। उक्त समस्त परिभाषाओं पर ध्यान देने पर निम्नलिखित निष्कर्ष निकलते हैं :1. निश्चय नय का विषय अभेद है और व्यवहार नय का भेद / 2. निश्चय नय सच्चा निरूपण करता है और व्यवहार नय उपचरित / 3. निश्चय नय सत्यार्थ है और व्यवहार नय असत्यार्थ / 4. निश्चय नय आत्माश्रित कथन करता है और व्यवहार नय पराश्रित / 5. निश्चय नय असंयोगी कथन करता है और व्यवहार नय संयोगी / ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि निश्चय और व्यवहार की विषय वस्तु और कथन शैली में मात्र भेद ही नहीं है अपितु विरोध दिखाई देता है, क्योंकि जिस विषयवस्तु को निश्चय नय अभेद अखंड कहता है, व्यवहार उसी भेद में भेद बताने लगता है और जिन दो वस्तुओं को व्यवहार एक बताता है, निश्चय के अनुसार वे कदापि एक नहीं हो सकती है / __माटी के घड़े को घी का कहना व्यवहार है पर यह व्यवहार झूठा है, क्योंकि घड़ा घी मय नहीं है, किन्तु माटी मय है। उसी प्रकार द्रव्य को निश्चय और पर्याय को व्यवहार कहते हैं / और यह व्यवहार घी के घड़े की भाति झूठा है ऐसा नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार घड़ा घी मय नहीं है, उसी प्रकार पर्याय है ही नहीं यह बात नहीं है / पर्याय अस्तिरूप है / राग पर्याय असद्भूत व्यवहार नय का विषय है / इन पर्यायों को अभूतार्थ कहा है - इस कारण वे पर्याय है ही नहीं, घी के घड़े के समान झूठी है ऐसा नहीं है। क्षायिक आदि चार भावों को परद्रव्य और परभाव कहा इससे वे पर्यायें हैं ही नहीं, झूठी है ऐसा नहीं है / घड़ा कुम्हार ने बनाया ऐसा कहना जैसे झूठा है, उसी प्रकार अशुद्ध पर्यायों को व्यवहार कहा / अतः ये पर्यायें भी झूठी है - ऐसा नहीं है / जीवत्व, भव्यत्व, अभव्यत्व आदि पर्याय नय के विषय है; अतः व्यवहार नय से भूतार्थ है। राजमार्ग तो यही है कि हम निश्चय और व्यवहार नय का स्वरूप समझकर, व्यवहार नय और उसका विषय छोड़कर तथा निश्चय नय के भी विकल्प को तोड़कर, निश्चयनय की विषयभूत वस्तु का आश्रय लेकर नय पक्षातीत, विकल्पातीत आत्मानुभूति को प्राप्त करे /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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