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________________ निश्चयनय और व्यवहारनय के आलोक में वर्णित पर्याय की अवधारणा 133 आगम में पर्यायों का वर्गीकरण चार विभागों में किया गया है :1. अनादि अनन्त पर्याय - जो अनादिकाल से और अनन्तकाल तक रहेगी, उसे अनादि अनन्त पर्याय कहते हैं / जैसे सुमेरू पर्वत, अकृत्रिमजिनबिंब व चैत्यालय आदि / 2. अनादिसांत पर्याय - जो पर्याय है वो अनादिकाल से है पर जिनका अंत हो जाता है, उन्हें अनादि सांत कहते हैं / जैसे जीव को संसारपर्याय / 3. सादि सांत पर्याय - जो पर्याय न तो अनादि है और न अनन्त है, उन्हें सादि सांत कहते हैं / जैसे जीव के मनुष्य पर्याय आदि / एक समय की पर्याय भी इसी में समाहित हैं / 4. सादि अनन्त पर्याय - जो पर्यायें अनादि नहीं है, पर अनन्तकाल तक रहने वाली हैं, उन्हें सादि अनन्त कहते हैं, जैसे-जीव की सिद्धपर्याय / - सिद्धो में वीर्य गुण है वह अनन्त विज्ञान एवं अनन्त दर्शन के माध्यम से त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्य व समस्त पर्यायों की जानने की प्रवृत्ति करता है। अनंतविज्ञानमनंतदृष्टि द्रव्येषु च पर्ययेषु / व्यापारयन्तं हतसंकरादि सिद्धत्रवीर्याख्य गुणं न्यासामि // पर्याय संसार का सूचक हैं, इसलिए पर्याय रहित उन सिद्ध परमेष्टि के 'निष्पीत अनंत गुण पर्याय गुण' को प्रणाम करके विषय को विराम देता हूँ। इसलिए कि उन्होंने संसार के अनंत पर्यायों को निश्चय पूर्वक पान करके सिद्ध पद पा चुके हैं / *
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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