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________________ निश्चयनय और व्यवहारनय के आलोक में वर्णित पर्याय की अवधारणा 131 पर्याय स्वरूप निर्धारण एवं भेद ___ द्रव्य की परिणति को पर्याय कहते हैं / पर्याय का वास्तविक अर्थ वस्तु का अंश है / 'परिसमन्तादायः पर्याय' - जो सब ओर से भेद को प्राप्त करे, वह पर्याय है। आलापपद्धति न्याय ग्रन्थ में पर्याय शब्द की व्युत्पत्ति बताते हैं कि - स्वभावविभावरूपतया याति पर्यति परिणमतीति पर्यायः इति / प्रति समय में गुणों की होने वाली अवस्था का नाम पर्याय है / व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय एकार्थक है / पंचाध्यायी के प्रथम अध्याय पद्य नं०-१६५ में पर्याय क्रमवर्ती, अनित्य, व्यतिरेकी, उत्पाद-व्ययरूप और कथंचित ध्रौव्यात्मक होती है। पर्याय के दो भेद हैं / 1. व्यञ्जन पर्याय 2. अर्थ पर्याय प्रदेशत्व गुण की अपेक्षा से किसी आकार को प्राप्त किये द्रव्य की जो परिणति होती है, उसे व्यञ्जन पर्याय कहते हैं और अन्य गुणों की अपेक्षा षड्गुण हानि वृद्धि रूप जो परिणति होती है, उसे अर्थ पर्याय कहते हैं / इन दोनों पर्यायों के स्वभाव और विभाव की अपेक्षा से दो-दो भेद होते हैं / स्वनिमित्तक पर्याय स्वभाव पर्याय है। परिनिमित्तक पर्याय विभाव पर्याय है। जीव और पुद्गल को छोड़कर शेष चार द्रव्यों का परिणमन स्वनिमित्तक होता है। अतः उनमें स्वभाव पर्याय सर्वदा रहती है। जीव और पुद्गल की जो पर्याय परनिमित्तक है, वह विभाव पर्याय कहलाती है। पर का निमित्त दूर हो जाने पर जो पर्याय होती है, वह स्वभाव पर्याय कही जाती है। निश्चय नय और व्यवहार नय की परिभाषायें हैं - णिच्छयववहारणया मूलिम भेया णयाण सव्वाणं / णिच्छय साहण हेऊ दव्वय पज्जत्थिया मुणत / - नयचक्र // 182 // समस्त नयों में प्रधानतः से 2 नय है - १.निश्चय नय 2. व्यवहार नय निश्चय नय इन्हीं दोनों के विकल्प हैं / "ज्ञाता के हृदय के अभिप्राय को नय कहते हैं।" नयचक्रकार माइल्लधवल लिखते हैं :- जो एक वस्तु के धर्मों में कथंचित् भेद व उपचार करता है, उसे व्यवहार नय कहते हैं और उससे विपरीत निश्चय नय होता है / आलाप पद्धति में अभेद और अनुपचार रूप से वस्तु का निश्चय करना निश्चय नय है और भेद तथा उपचार रूप से वस्तु का व्यवहार करना व्यवहार नय है। तत्त्वानुशासन के अनुसार जिसका अभिन्न कर्ता-कर्म आदि विषय है, वह व्यवहार नय है / अमृतचंद्राचार्य की आत्मख्याति टीका के अनुसार - __ 'आत्माश्रितो निश्चयनयः पराश्रितो व्यवहारनयः' आत्माश्रित कथन को निश्चय नय तथा पराश्रित कथन को व्यवहार नय कहते हैं / पंडितप्रवर टोडरमलजी ने निश्चय व्यवहार का सांगोपांग विवेचन किया है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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