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________________ 130 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा करना ही चाहिए / ये परिणमन कभी सदृश होते हैं और कभी विसदृश तथा ये कभी एक-दूसरे के निमित्त से भी प्रभावित होते हैं / उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की परिणमन-परम्परा कभी भी समाप्त नहीं होती / अगणित और अनन्त परिवर्तन होने पर भी वस्तु की सत्ता कभी नष्ट नहीं होती और न कभी उसका मौलिक द्रव्यत्व ही नष्ट होता है। उसका गुण-पर्यायात्मक स्वरूप बना रहता है / ___ आचार्य कुन्दकुन्द ने 'समयसार' को केवल अध्यात्म दृष्टि से लिखा है / इसलिए उसमें निश्चय नय का ही प्राधान्य है / आचार्य ने आध्यात्मिक दृष्टि के साथ शास्त्रीय दृष्टि को भी प्रश्रय दिया है / ____ 'समयसार' जैन दर्शन में एक अद्वितीय ग्रन्थ है, क्योंकि शुद्ध नय की दृष्टि से आत्म तत्त्व का विवेचन करने वाला ग्रन्थ है। आध्यात्मिक दृष्टि में निश्चय तथा व्यवहार नय का निरूपण है तथा शास्त्रीय दृष्टि से द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक एवं नैगम आदि सात भेद बतलाए हैं / द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नय निश्चय नय में समा जाते हैं / व्यवहार नय में केवल उपचार का कथन रह जाता है / निश्चय नय वस्तु के एकत्व, अभिन्नत्व, स्वाश्रित, परनिरपेक्ष, त्रैकालिक स्वभाव को जानने वाला नय है। अपने गुण पर्यायाओं से अभिन्न आत्मा के कालिक स्वभाव को आचार्यों ने निश्चय नय का विषय माना है और कर्म के निमित्त से होने वाली आत्मा की परिणति को व्यवहार नय का विषय कहा है। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि विकारों को आत्मा के स्वभाव के रूप में स्वीकार नहीं किया है। चूकि वे पुद्गल के निमित्त से होते हैं / इसी प्रकार गुणस्थान जो आत्मा के क्रमिक विकास के सोपान हैं वे जीव का स्वभाव नहीं बनते / निश्चय नय स्वभाव के विषय को वर्णित करता है विभाव को नहीं / जो स्व में सदा रहता है, वह स्वभाव है जैसे-जीव के ज्ञान, दर्शन आदि / जो स्व में पर के निमित्त से होते हैं, वे विभाव है जैसे-जीव में क्रोधादि / विभाव आत्मा में पर के निमित्त से होते हैं, वे आगन्तुक ववहारोऽभूदत्थो भूदत्थे देसिदो दु सुद्धणओ / भूदत्थमस्सिदो खलु सम्मादिट्ठी हवदि जीवो // - समयसार // 11 / / आचार्य कुन्द-कुन्द विभावों को ही व्यवहार का विषय मानते हैं / निश्चयनय को भूतार्थ व्यवहारनय को अभूतार्थ कहकर, निश्चयनय की प्रमुखता बतलाई है / तात्पर्य यह है कि आत्मस्वरूप के ख्याति को ही सम्यक् दर्शन कहा है। आत्मा का वास्तविक स्वरूप निश्चय में ही विचार करता है। किन्तु व्यवहार नय बाह्य स्वरूप को ध्यान में रखते हुए वस्तु का विचार करता है / परिवर्तन एवं पर्याय वस्तु के बाह्य स्वरूप में ही दृष्टिगोचर होती हैं, आन्तरिक में नहीं / सत् के सम्बन्ध में चार मान्यतायें प्रचलित हैं - 1. सत् एक और नित्य है। 2. सत् नाना और उत्पाद-व्यय-परिणमनशील है / 3. सत् कारण द्रव्यों की अपेक्षा नित्य और कार्य द्रव्यों की अपेक्षा अनित्य है / 4. सत् चेतन है, असत् अचेतन है / चेतन नित्य है और अचेतन परिणामी नित्य है /
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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