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________________ निश्चयनय और व्यवहारनय के आलोक में वर्णित पर्याय की अवधारणा 129 एकरूपता बनी रहती है, जिसके कारण बड़ा हो जाने पर भी हम उसे पहचान लेते हैं। यदि ऐसा न मानकर द्रव्य को केवल नित्य ही मान लिया जाये तो उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकेगा और यदि केवल अनित्य ही मान लिया जाये तो आत्मा के सर्वथा क्षणिक होने से, पहले जाने हुए का स्मरण नहीं बन सकेगा। अतः प्रत्येक द्रव्य, उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य स्वभाव वाला है। चूंकि द्रव्य में गुण ध्रुव होते हैं और पर्याय उत्पाद-विनाशशील होती है, अतः गुणपर्यायात्मक कहो या उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कहो दोनों का एक ही अभिप्राय है / द्रव्य के इन दोनों लक्षणों में वास्तव में कोई भेद नहीं है, किन्तु एक लक्षण से दूसरे का व्यञ्जन मात्र है। जैन दर्शन के द्रव्य-गुण-पर्याय सिद्धान्त के प्रतिपादन का महर्षि पतञ्जली ने भी अपने महाभाष्य में उल्लेख किया है / द्रव्य नित्य है और पर्याय अनित्य है / सुवर्ण किसी एक विशिष्ट आकार से पिण्ड रूप होता है / पिण्ड रूप का विनाश करके उससे माला बनाई जाती है। माला का विनाश करके उससे कड़े बनाये जाते हैं / कड़ों को तोड़कर उससे स्वस्तिक बनाये जाते हैं / उसे जलाकर फिर सुवर्ण पिण्ड हो जाता है / इस प्रकर सोना जो पीले रंग का है वह द्रव्य वही रहता है, परन्तु उसके अनेक पर्याय विनाश होकर अनेक पर्याय उत्पन्न होते हैं / आप्तमीमांसा में लिखते हैं - घट-मौली-सुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् / शोक-प्रमोदे माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् // - आप्तमीमांसा - // 69 / / एक राजा के पास एक सोने का घड़ा है / राजा के एक पुत्र और एक पुत्री है / पुत्री सोने का घट चाहती है, परन्तु राजपुत्र घट को तोड़कर मुकुट बनवाना चाहता है। राजा घट को तुड़वाकर मुकुट बना देता है / घट के नाश से पुत्री दुःखी होती है / मुकुट के उत्पाद से पुत्र प्रसन्न होता है, परन्तु राजा सुवर्ण का इच्छुक है / जो कि घट टूटकर मुकुट बन जाने पर भी कायम रहता है / अतः राजा को न शोक होता है न हर्ष / अतः वस्तु त्रयात्मक है / उप्पादट्ठिदिभंगा विज्जंते पज्जएसु पज्जाया / दव्वे हि संति णियदं तम्हा दव्वं हवदि सव्वं // - प्रवचनसार - // 101 // उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य पर्यायों में होता है और पर्यायें द्रव्य में स्थित है तथ्य यह है कि किसी भाव अर्थात् सत् का अत्यन्त नाश नहीं होता और किसी अभाव अर्थात् सत् का उत्पाद नहीं होता सभी पदार्थ अपने गुण और पर्याय रूप से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त रहते हैं / विश्व में जितने सत् हैं, वे त्रैकालिक हैं / उनकी संख्या में कभी परिवर्तन नहीं होता; पर उनके गुण और पर्यायों में परिवर्तन अवश्य होता है, इसका अपवाद नहीं हो सकता है। प्रत्येक सत् परिणमनशील होने से उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य युक्त है। वह पूर्व पर्याय को छोड़कर उत्तर पर्याय धारण करता है / उसके पूर्व पर्यायों के व्यय और उत्तर पर्यायों के उत्पाद की यह धारा अनादि अनन्त है, कभी भी विच्छिन्न नहीं होती / चेतन अथवा अचेतन सभी प्रकार के सत् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की परम्परा से युक्त है / यह विलक्षण पदार्थ का मौलिक धर्म है, अतः उसे प्रतिक्षण परिणमन
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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