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________________ 128 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा निरुक्ति के अनुसार द्रव्य, गुण, पर्याय जाने जाते हैं / इस कारण से वे अर्थ कहलाते हैं / द्रव्य, गुण, पर्याय को अर्थ कहने पर भी सत् द्रव्य ही है / गुण पर्याय उस सद्भूत द्रव्य की विशेषतायें हैं / गुण व पर्यायें सीधे नहीं जाने जाते, परन्तु गुण व पर्याय रूप से द्रव्य के बारे में जानने से गुण का व पर्याय का जानना कहा है / जो प्राप्त किया जाये वह अर्थ है, जो गुण पर्यायों को प्राप्त करे वह अर्थ द्रव्य है। आश्रय भूत अर्थों के द्वारा जो प्राप्त किया जाये वह अर्थ गुण है / क्रम परिणाम से द्रव्य के द्वारा जो प्राप्त किया जाये वह पर्याय है / गुण व पर्यायों का सर्वस्व द्रव्य ही है, क्योंकि गुण व पर्याय द्रव्य से पृथक् नहीं है / प्रत्येक द्रव्य अपने गुण, पर्याय से तन्मय है, अन्य द्रव्य के गुण और पर्याय और अत्यंत जुदा है। द्रव्यों का यथार्थ स्वरूप ज्ञान होने पर मोह का क्षय हो जाता है / यथार्थ स्वरूप आगमों में वर्णित है, अतः उन शास्त्रों का अध्ययन करना साधक का परम कर्तव्य है। इसलिए शास्त्र अध्ययन को मोह क्षय का उपाय बताया है। द्रव्य में गुण और पर्यायें होती हैं (गुणपर्यायवत् द्रव्यम् ) तत्त्वा-॥५/३८॥ गुण सदा रहते हैं। कभी नष्ट नहीं होते हैं / पर्यायें प्रतिक्षण उत्पन्न और नष्ट होती रहती है। अतः गुणों की दृष्टि से द्रव्य नित्य है, पर्याय की दृष्टि से अनित्य व क्षणभंगुर है / यह नित्य-अनित्यता सापेक्ष है / आचार्य कुन्दकुन्द देव ने पंचास्तिकाय ग्रंथ में द्रव्य का लक्षण बताया है - दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादवयधुवत्तसंजुत्तं / गुणपज्जयारायं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू // - पञ्चास्तिकाय // 10 // जिनेन्द्र देव ने द्रव्य का लक्षण सत् (सद्रव्यलक्षणम् / तत्त्वा - // 5/29 // ) बताया है, जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से संयुक्त है / वह द्रव्य है / तथा जो गुण व पर्याय का आश्रय है, वह द्रव्य है। जिसमें प्रतिसमय उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता पाई जाती है, वही सत् है। मिट्टी से घट बनाते समय मिट्टी की पिंड रूप पर्याय नष्ट हो जाती है, घट पर्याय उत्पन्न होती है और मिट्टी कायम रहती है। ऐसा नहीं है कि पिंड पर्याय का नाश पृथक् समय में होता है और घट पर्याय की उत्पत्ति पृथक् में होती है। किन्तु जो समय पहले पर्याय के नाश का है. वही समय आगे की पर्याय की उत्पाद का है। इस तरह प्रतिसमय पूर्व पर्याय का नाश और आगे की पर्याय की उत्पत्ति के होते हुए भी द्रव्य कायम रहता है / अतः वस्तु प्रतिसमय उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक कही जाती है / उत्पाद-व्यय-धौव्ययुक्तं सत् (तत्त्वा-५/३०) ___आशय यह है कि प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील है और उसमें वह परिवर्तन प्रति समय होता रहता है। जैसे एक बालक कुछ समय बाद युवा हो जाता है, और कुछ समय के बाद बूढ़ा हो जाता है। बचपन से युवापन और युवापन से बुढ़ापा एकदम नहीं आ जाता है परन्तु प्रतिसमय बच्चे में जो परिवर्तन होता रहता है वही कुछ समय बाद युवापन के रूप में दृष्टिगोचर होता है / प्रति समय होने वाला परिवर्तन इतना सूक्ष्म है कि उसे हम देख सकने में असमर्थ हैं / इस परिवर्तन के होते हुए भी उस बच्चे में एकरूपता बनी रहती है, जिसके कारण बड़ा हो जाने पर भी हम उसे पहचान लेते हैं / यदि ऐसा न मानकर द्रव्य को केवल नित्य ही मान लिया जाये तो उसमें किसी प्रकार का परिवर्तन के होते हुए भी उस बच्चे में
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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