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________________ 13 निश्चयनय और व्यवहारनय के आलोक में वर्णित पर्याय की अवधारणा जयकुमार उपाध्ये जैन धर्म आत्मवादी धर्म है, व्यक्तिवादी नहीं है / समतावादी धर्म है। व्यक्तिवाद का अर्थ है अपने स्वार्थ पर केन्द्रित रहकर केवल अपने बारे में ही सोचे / समाज, राष्ट्र, विश्व के समस्त जीवों के हितों की उपेक्षा करे। जिस धर्म का समस्त आचार-विचार और व्यवहार अहिंसा की धुरी पर ही केन्द्रित हो वह धर्म व्यक्तिवादी नहीं हो सकता / इस पवित्र धर्म दर्शन का विकास मात्र तत्त्व ज्ञान की भूमि पर न होकर पुनीत आचार के पक्ष पर आरूढ़ है / विश्व दो द्रव्यों से निर्मित है। "जीवमजीवं दव्वं" (द्रव्य संग्रह) पहला जीव और दूसरा अजीव नामक दो द्रव्य हैं / जीव द्रव्य में चेतना, ज्ञान, सुख आदि गुण हैं / अजीव द्रव्य अचेतन है, जिसे पुद्गल कहते हैं / उसके पांच भेद हैं / पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश एवं काल / ये सभी द्रव्य अनादि काल से हैं और अनन्त काल तक रहेंगे। यह छ: द्रव्य लोकाकाश में एक साथ (एकाक्षेत्रावगाही) रहने पर भी अपने-अपने द्रव्यत्व की स्वतंत्र सत्ता को कभी नहीं छोड़ते / पुद्गल रूप, रस, गंध, स्पर्श गुण से युक्त है / धर्म द्रव्य जीव पुद्गल के गमन का सहकारी है / अधर्म द्रव्य जीव और पुद्गलों को ठहरने में उदासीन निमित्त है / आकाश द्रव्य सब द्रव्यों को अवकाश (स्थान) प्रदान करता है / काल द्रव्य का उपकार सब द्रव्यों को वर्तना है / सभी द्रव्य अपने ही परिणमनों के कर्ता हैं / दूसरे द्रव्य के परिणमन के कर्ता नहीं है / परन्तु एक दूसरे के परिणमनों में निमित्त मात्र हैं / प्रवचनसार ग्रंथ के प्रथम अध्याय में आचार्य कुन्दकुन्द देव ने जिनेंद्र देव के शब्द ब्रह्म में द्रव्य की व्यवस्था इस प्रकार बतायी है / दव्वाणि गुणा तेसिं पज्जाया अट्ठसण्णया भणिया / तेसु गुणपज्जायाणं अप्पा दव्वं त्ति उवदेसो // - प्रव० - // 1/87 // तात्पर्य :- द्रव्य, गुण, पर्याय ये अर्थ नाम से कहे गये हैं, 'अर्यते निश्चीयते इति अर्थः' इस
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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