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________________ 124 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य का भेदाभेदवाद उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समन्वित रूप ही द्रव्य या सत् है / परन्तु इन तीनों का परस्पर क्या सम्बन्ध है, ये तीनों एक साथ होते हैं या क्रम से, तीनों का काल भिन्न है या अभिन्न ? आदि प्रश्न महत्त्वपूर्ण हैं / उमास्वाति ने 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' कह कर सत् की अवधारणा तो दी, लेकिन उत्पाद आदि के परस्पर सम्बन्ध की उन्होंने कोई चर्चा नहीं की। सिद्धसेन दिवाकर ने इस अवधारणा पर नयदृष्टि से विचार किया है / उनके अनुसार तिण्णि वि उप्पायाई अभिण्णकाला या भिण्णकाला य / अत्यंतरं अणत्यंतरं च दवियाहि णायव्वा // 1 अर्थात् उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों का काल भिन्न भी और अभिन्न भी। इसी प्रकार उत्पादव्यय-ध्रौव्य रूप यह लक्षण भी लक्ष्यभूत द्रव्य या सत् से भिन्न भी है और अभिन्न भी / क्रमवर्ती दो पर्यायों को लेकर उनके उत्पाद और विनाश का यदि विचार करें तो उन्हें समकालीन कहा जा सकता है, क्योंकि जिस समय पूर्व पर्याय का विगम (नाश) होता है, उसी समय उत्तर पर्याय का उत्पाद होता है। उत्पाद और विनाश के समय वस्तु सामान्य धर्म की अपेक्षा स्थिर रहती है, अतः तीनों अभिन्नकालिक हैं / यदि हम एक ही पर्याय की दृष्टि से विचार करें तो उत्पाद आदि तीनों को भिन्नकालिक मानना होगा / क्रमवर्ती पर्यायों में जहाँ पूर्व पर्याय का अन्तिम क्षण ही उत्तर पर्याय का आदि क्षण होता है वहीं एक ही पर्याय का आदि क्षण और अन्तिम क्षण भिन्न-भिन्न होता है / मृत्तिका के नाश वे घट के उत्पाद का एक ही समय हो सकता है, पर घट के उत्पाद और घट के विनाश का एक समय नहीं हो सकता। एक ही पर्याय के उत्पत्ति और विनाश की तरह स्थिति का काल भी भिन्न ही होगा / उत्पाद का समय अर्थात् उसका प्रारंभिक समय और विनाश अर्थात् उसका अन्तिम समय सिद्धसेन दिवाकर ने अंगुली के दृष्टांत से और स्पष्ट किया है - अंगुली एक वस्तु है / अंगुली के आकुंचन और प्रसरण का काल एक ही नहीं हो सकता 59| वक्रता और सरलता एक ही वस्तु में एक ही काल में सम्भव न होने से क्रमवर्ती है। दो क्रमवर्ती पर्यायों में उत्पाद और नाश का काल भेद नहीं होता, इसलिए जो समय अंगुली के आकुंचन रूप अवस्था के उत्पाद का है वही समय उसके प्रसरण रूप अवस्था के व्यय का है। दोनों ही अवस्थाओं में अंगुली नामक वस्तु स्थिर है / अत: एक ही अंगुली में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों की समकालिकता सिद्ध होती है। सिद्धसेन ने उत्पाद आदि के भेदाभेद त्रैकालिकता की सिद्धि का जो प्रयास किया है, उसके मूल में उनकी अनेकान्तिक दृष्टि है। उन्होंने प्रत्येक विरोधी अवधारणा के समन्वय का प्रयास किया है। वे मानते हैं कि महा सत्ता रूप द्रव्य तथा अंतिम अविभाज्य अंश पर्याय से अतिरिक्त सभी पर्याय पदार्थ द्रव्य और पर्याय के उभय रूप होते हैं / द्रव्य और पर्याय दोनों मिलकर ही सत् का सर्वांग लक्षण बनते हैं / द्रव्य के सन्दर्भ में उन्होंने पर्याय को ही माना है तथा गुण को पर्याय में ही सन्निविष्ट माना है। तदनुसार गुणार्थिक नय की परिकल्पना करते हुए भी मूलतः द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दो नयों में ही समूची
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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