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________________ द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्धःसिद्धसेन दिवाकरकृत 'सन्मति-प्रकरण' के विशेष सन्दर्भ में 123 न्याय-वैशेषिक आदि भेदवादी होने के कारण गुण, कर्म आदि का द्रव्य से भेद मानते हैं तथा सांख्य और वेदान्ती उनका अभेद / जैन दार्शनिक दोनों में भेदाभेद का सम्बन्ध मानते हैं। आचारांग में कहा गया है - 'जो आया से विन्नाया, जे विनाया से आया 0 अर्थात् जो आत्मा है, वही विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वही आत्मा है। प्रथमदृष्ट्या यह सूत्र अभेद का वाचक प्रतीत होता है पर जैसा कि नियुक्तिकार ने कहा है - 'णत्थि जिणवयणं णयविहूणं' किसी भी कथन के हार्द को सापेक्षता के आधार पर ही समझा जा सकता है / ज्ञान आत्मा का परिणाम विशेष है जो बदलता भी रहता है, अतः पर्याय दृष्टि से दोनों भिन्न भी हैं, किन्तु फल की दृष्टि से विचार करें तो आत्मा की ज्ञान से अभिन्नता सिद्ध होती है / ज्ञान का फल है विरति / मिथ्यादृष्टि को ज्ञान नहीं होता और न ही विरति इसलिए उसका ज्ञान अज्ञान कहलाता है / भगवतीसूत्र में 'आया भंते सिय णाणे, सिय अण्णाणे, णाणे पुण नियम आया' कहकर सूत्रकार ने आत्मा को ज्ञान से कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न है / आत्मा ज्ञान का परिणाम है, अत: वह नियमतः आत्मा ही है। इसी प्रकार द्रव्य और पर्याय दोनों कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं। सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार द्रव्याथिक नय का विषय है - द्रव्य और पर्याय दोनों कथंचित भिन्न और कथंचित अभिन्न हैं / सिद्धसेन का मत है कि दोनों नय अलग-अलग मिथ्यादृष्टि हैं / दोनों में से किसी एक नय का विषय सत् का लक्षण नहीं बनता / सामान्य और विशेष मिलकर ही सत् का लक्षण बनते हैं, अतः द्रव्य और पर्याय दोनों भिन्नाभिन्न हैं / द्रव्य : उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य का समन्वय 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' इस परिभाषा के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की समन्वित अवस्था ही सत् या द्रव्य कहलाती है / स्थानांग 2 में इसे मातृकापद कहा गया है / जिस प्रकार समस्त शास्त्रों का आधार अकार आदि वर्णाक्षर हैं, उसी प्रकार समस्त तत्त्वमीमांसा का आधार यह त्रिपदी है। अन्यत्र यह 'उप्पन्नेइ वा विगमइ वा धुवेई वा' इस रूप में भी प्राप्त होता है / सिद्धसेन दिवाकर ने उमास्वाति के द्रव्य के लक्षण को यथावत् माना है / उनकी विशेषता यह है कि वे पूर्व प्रचलित द्रव्य के स्वरूप को यथावत् स्वीकार करते हुए भी उसका नय दृष्टि से विवेचन करते हैं / सन्मति-प्रकरण के अनुसार पर्यायार्थिक नय की दृष्टि से सभी पदार्थ नियम से उत्पन्न होते हैं और नष्ट होते हैं / द्रव्यार्थिक नय की दृष्टि से सभी पदार्थ सर्वदा के लिए उत्पत्ति और विनाश रहित ही हैं / उत्पत्ति और नाश रूप पर्यायों से रहित द्रव्य नहीं होता और द्रव्य अर्थात् ध्रुवांश से रहित कोई पर्याय नहीं होती। कहा भी है दव्वं पज्जववियुयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि / उप्पाय-ट्रिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं३ // यह त्रिपदी ही वस्तु की अनंतधर्मात्मकता का आधार है / वस्तु के त्रयात्मक स्वरूप का समर्थन समन्तभद्र, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण", अमृतचंद्रसूरि 6, जिनदासगणि" तथा अभयदेवसूरि 8 आदि जैन दार्शनिकों ने भी किया है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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