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________________ 120 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा के संबन्ध का हेतु कोई दूसरा समवाय होना चाहिए / इसी तरह दूसरे समवाय में समवायत्व के संबन्ध का हेतु कोई तीसरा समवाय मानना होगा और इस प्रकार अनवस्था दोष की प्रसक्ति होगी / यदि कहा जाय कि समवाय में समवायत्व का होना अपेक्षित नहीं है तो समवाय निःस्वभाव हो जायेगा / अतः धर्म और धर्मी को सर्वथा भिन्न मानना और फिर उसमें समवाय सम्बन्ध मानना कथमपि युक्तियुक्त नहीं है। जैन दर्शन ऐसे पदार्थों में तादात्म्य सम्बन्ध मानता है / जैनों के अनुसार गुण से रहित होकर न तो द्रव्य की कोई सत्ता होती है, न द्रव्य से रहित गुण की / अतः सत्ता के स्तर पर गुण और द्रव्य में अभेद है, जबकि वैचारिक स्तर पर दोनों में भेद किया जा सकता है / सिद्धसेन दिवाकर का अभिमत सिद्धसेन दिवाकर अनेकान्तवाद के प्रतिष्ठापक होने के कारण द्रव्य और गुण के भेदाभेद सम्बन्ध को सापेक्षता के आधार पर समाहित करते हैं / जैनों की 'उत्त्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' की व्याख्या को आधार बनाकर भेदवादी कहते हैं कि द्रव्य का लक्षण है स्थिरता और गुण का लक्षण है - उत्पाद व्यय, अतः दोनों के लक्षण भिन्न होने से दोनों भिन्न हैं / सिद्धसेन के अनुसार इस अवधारणा में अव्याप्तिदोष है। द्रव्य की तरह गुण भी स्थिर रहते हैं और गुण की तरह द्रव्य का भी उत्पाद-व्यय देखा जाता है, किन्तु मात्र स्थिरता को द्रव्य का, एवं उत्पत्ति-विनाश को गुण का लक्षण बताना अव्याप्तिदोष है। यह लक्षण केवल द्रव्य और केवल गुण में भिन्न-भिन्न घटेगा, किन्तु एक समग्र सत् में नहीं२९ / सिद्धसेन की मान्यता है कि धर्मी और धर्म केवल एकान्त भिन्न नहीं हैं, वे परस्पर अभिन्न भी हैं। धर्मी भी, धर्म की भांति उत्पाद-विनाशवान ही है और धर्म भी धर्मी की भाति स्थिर है / अतः द्रव्य या सत् धर्मधर्मी उभय रूप है / वे तर्क देते हैं कि यदि गुण द्रव्य से भिन्न हैं तो या वे मूर्त होंगे या अमूर्त / यदि मूर्त हों तो परमाणु भी इन्द्रियग्राह्य बन जायेंगे जो सम्भव नहीं है और यदि अमूर्त हों तो उनका इन्द्रियों द्वारा ग्रहण ही सम्भव नहीं होगा, जबकि घट, पट, नील आदि का प्रत्यक्ष इन्द्रियों द्वारा ग्रहण होता है, अतः द्रव्य को गुणों से भिन्न नहीं माना जा सकता / सिद्धसेन के अनुसार उपर्युक्त दोषापत्ति से बचने का श्रेयस्कर मार्ग है-भेदाभेद की स्वीकृति / भेदाभेद मानने पर मूर्त-अमूर्त का प्रश्न स्वतः समाहित हो जाता है / सिद्धसेन दिवाकर ने मूर्त-अमूर्त की भेद रेखा वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की सहभाविता से अलग इन्द्रियों की ग्राह्यता व अग्राह्यता के आधार पर निर्धारित की है / कुन्दकुन्द ने भी मूर्त को इन्द्रियग्राह्य और अमूर्त को इन्द्रिय अग्राह्य कहा है / सन्मतिकार ने मूर्त और अमूर्त के परिप्रेक्ष्य में मूलतः परमाणु का उल्लेख किया है / जहाँ तक परमाणु के इन्द्रियग्राह्य न होने का प्रश्न है, सिद्धसेन का विचार आगम सम्मत है, पर जहाँ वे मूर्त-अमूर्त की भेदक कसौटी के रूप में इन्द्रियग्राह्यता को आधार बनाते हैं, वहाँ वे आगम परम्परा से भिन्न जाते प्रतीत होते हैं / द्रव्य और गुण का एकान्त अभेदवाद भेदवादी द्रव्य की निरंश अखंड सत्ता मानते हैं / उनके अनुसार द्रव्य में गुणकृत विभाग नहीं होते / द्रव्य और गुण परस्पर अव्यतिरिक्त होने से अभिन्न हैं। अद्वैत वेदान्ती, सांख्य और मीमांसक वस्तु
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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