________________ द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्धःसिद्धसेन दिवाकरकृत 'सन्मति-प्रकरण' के विशेष सन्दर्भ में 121 को सर्वथा सामान्य मानते हैं / उनके मत में सामान्य से अलग विशेष कहीं दृष्टिगोचर ही नहीं होते / वे मानते हैं कि सामान्य से अलग विशेषों का अस्तित्व मानने पर प्रश्न उठता है कि विशेषों में विशेषत्व होता है या नहीं ? यदि विशेषों में विशेषत्व होता है तो कहना होगा कि वही विशेषत्व सामान्यवादियों का सामान्य है। यदि वह कहें कि विशेषों में विशेषत्व नहीं होता तो विशेष निःस्वभाव हो जायेंगे। अतः सामान्य ही सत् है / जैन दर्शन के अनुसार वस्तु तत्त्व न तो केवल सामान्य है न केवल विशेष बल्कि वह सामान्यविशेषात्मक है / विशेष रहित सामान्य और सामान्य रहित विशेष खरविषाणवत् असंभव है / द्रव्य, गुण और पर्याय में से अभेदवादी केवल द्रव्य को ही पदार्थ मानते हैं / गुण और पर्याय के आधार पर होने वाली भिन्नता उनकी दृष्टि में मिथ्या अथवा प्रतिभास मात्र है / जैन दार्शनिक द्रव्य को गुणपर्यायवत् मानने से द्रव्य और गुण का नितान्त अभेद स्वीकार नहीं करते२३ / डॉ. महेन्द्रकुमार जैन के अनुसार द्रव्य को पृथक् नहीं किया जा सकता, इसलिए वे द्रव्य से अभिन्न हैं / किन्तु प्रयोजन आदि भेद से उसका अभिन्न रूप से निरूपण किया जा सकता है, अतः वे भिन्न भी है / सिद्धसेन दिवाकर का अभिमत सिद्धसेन दिवाकर के अनुसार द्रव्य और गुण दोनों परस्पर भिन्नाभिन्न हैं / द्रव्य और गुण में न तो एकान्त अभेद है न एकान्त भेद / सामान्य और विशेष दोनों परस्पर अनुविद्ध हैं / एकान्त सामान्य अथवा एकान्त विशेष के प्रतिपादन का अर्थ होगा द्रव्यरहित पर्याय और पर्यायरहित द्रव्य का प्रतिपादन / वस्तुतः कोई भी विचार या वचन एकान्त सामान्य या विशेष के आधार पर प्रवृत्ति नहीं कर सकता / दोनों सापेक्ष रहकर ही यथार्थ का प्रतिपादन कर सकते हैं / वृत्तिकार अभयदेवसूरि नियम का उल्लेख करते हैं - यत् यदात्मकं भवति तत् तद्भावे न भवति५ / सिद्धसेन कहते हैं कि सामान्य के अभाव में विशेष का और विशेष के अभाव में सामान्य का सद्भाव कथमपि सम्भव नहीं है / जिस प्रकार एक ही पुरुष सम्बन्धों की भिन्नता के कारण पिता, पुत्र, भान्जा, मामा आदि के रूप में भिन्न-भिन्न व्यक्तियों द्वारा पुकारा जाता है, उसी प्रकार एक और निर्विशेष होने पर भी सामान्य भिन्न-भिन्न इन्द्रियों के सम्बन्ध से भिन्न रूप में व्यहृत होता है। वही सामान्य जब नेत्रग्राह्य होता है तो रूप, एवं श्रोतग्राह्य होता है तो शब्द कहलाता है / अतः गुण वस्तुतः द्रव्य से भिन्न नहीं है, परमार्थतः सत्ता द्रव्य की ही है२६ / किया है। वे अभेदवादी विचार का इस अंश तक तो समर्थन करते हैं कि सम्बन्ध विशेष के कारण वही सामान्य द्रव्य भिन्न-भिन्न रूपों में व्यवहृत होता है, परन्तु यहाँ प्रश्न उठता है कि जहाँ एक ही इन्द्रिय के सम्बन्ध से सम्बद्ध दो वस्तुओं में विषमता परिलक्षित होती है, वहाँ इसकी उपपत्ति कैसे हो / उदाहरणार्थ - एक समान दो कृष्ण पदार्थों का चक्षु के साथ सम्बन्ध होने पर 'ये कृष्ण वर्ण वाले हैं' इतना तो बोध हो जाता है पर वह किसी दूसरे कृष्ण पदार्थ से अनन्तगुणा कृष्ण है या असंख्यगुणा इस भेद का ज्ञान सम्बन्ध मात्र से कैसे होगा? एक ही पुरुष भिन्न-भिन्न सम्बन्धों के कारण पिता, पुत्र, भाई, मामा के रूप