________________ द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्धःसिद्धसेन दिवाकरकृत 'सन्मति-प्रकरण' के विशेष सन्दर्भ में 119 वैशेषिकों का कहना है कि द्रव्य और गुण के लक्षण भिन्न-भिन्न हैं / द्रव्य गुणों का आधार है, जबकि गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं / द्रव्य गुणवान होता है, जबकि गुण निर्गुण होते हैं / द्रव्य क्रियावान होता है, जबकि गुण निष्क्रिय होते हैं / अतः दोनों नितान्त भिन्न हैं२२ / इसी प्रकार गुण और द्रव्य के ग्राहक प्रमाण भी भिन्न-भिन्न हैं। घट, पट आदि द्रव्यों का ग्रहण एक से अधिक इन्द्रियों द्वारा होता है और इसमें मानसिक अनुसंधान भी साथ होता है। जबकि रूप, रस, गन्ध आदि गुणों का ग्रहण एक इन्द्रिय सापेक्ष होता है तथा इसमें मानसिक अनुसंधान भी नहीं होता / इस प्रकार दोनों के लक्षण और ग्राहक प्रमाण भिन्न होने से दोनों पृथक् हैं / सिद्धसेन दिवाकर ने एकान्तभेदवादी वैशेषिकों की इस दलील को सन्मति-प्रकरण में 'कई' (केचिद्) शब्द द्वारा पूर्वपक्ष के रूप में रखा है - रूप-रस-गंध-फासा असमाणग्गहण-लक्खणा जम्हा / तम्हा दव्वाणुगया गुण त्ति ते केइ इच्छन्ति // 23 वृत्तिकार, अभयदेवसूरि ने अपने 'सन्मति-तर्क-प्रकरणम्' में 'केइ' पद की व्याख्या में भेदवादी वैशेषिकों तथा 'स्वयूथ्य' अर्थात् कतिपय सिद्धान्त से अनभिज्ञ जैनाचार्यों का ग्रहण किया है / पं० सुखलालजी एवं बेचरदासजी ने वृत्तिकाकार के अभिमत की समीक्षा की है। उनकी मान्यता है कि द्रव्य को गुणों से भिन्न मानने वाला कोई जैनाचार्य तो सम्भव नहीं है / उपाध्याय यशोविजय ने अपने 'द्रव्य-गुण पर्याय नो रास'२५ में कोइक दिगंबरानुसारी शक्तिरूप गुण भाषइ छइ, जे माटे ते... गुण पर्याय नुं कारण गुण' कह कर किसी दिगम्बर विद्वान द्वारा भेद की परम्परा मानने का उल्लेख किया है, किन्तु यह दिगम्बर विद्वान कौन है ? यह कहना सर्वथा कठिन है। क्योंकि द्रव्य और गुण में सर्वथा भेद जैन दर्शन की अनेकान्त व्यवस्था के नितान्त प्रतिकूल है। फिर भी यह कल्पना की जा सकती है कि द्रव्य और गुण में भेद स्वीकारने वाले वैशेषिकों से प्रभावित रहे होंगे / आदि आचार्यों ने किया है। न्याय-वैशेषिक दार्शनिक व्यपदेश, संख्या, संस्थान, विषय आदि के आधार पर द्रव्य और गुण को भिन्न बतलाते हैं, किन्तु कुन्दकुन्दाचार्य के अनुसार व्यपदेश, संख्या, संस्थान, विषय आदि जिस तरह भेद में होते हैं, उसी तरह अभेद में भी होते हैं / जहाँ अनेक द्रव्यों की अपेक्षा प्रतिपादन हो वहाँ व्यपदेश आदि का भेद भेदवाद का प्रतीक बन जाता है / जहाँ एक ही द्रव्य की अपेक्षा कथन हो वहाँ व्यपदेश आदि अभेद का प्रतीक बन जाता है६ / अतः द्रव्य और गुण सर्वथा भिन्न नहीं हैं / सर्वथा भेद वहीं होता है जहाँ प्रदेश भेद हो / जिस प्रकार स्वर्ण और पीत में संज्ञा आदि का भेद होने पर भी प्रदेश भेद नहीं है, उसी प्रकार द्रव्य और गुण में भी प्रदेश भेद नहीं है / वैशेषिकों का यह तर्क कि धर्म और धर्मी सर्वथा भिन्न होने पर भी समवाय सम्बन्ध से सम्बन्धित होते हैं, जैन दर्शन को मान्य नहीं है / जैन दार्शनिक कहते हैं कि एक तो समवाय की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है, यदि समवाय की स्वतन्त्र सत्ता मान भी लें तो जिस प्रकार पट में पटत्व का हेतु समवाय है, उसी प्रकार समवाय में समवायत्व