________________ 118 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा पर्यायों को परिणाम कहा जाता है। ऊर्ध्वतासामान्य का अर्थ है - कालकृत भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में समानता की अनुभूति / जैसे द्रव्यार्थिकनय से जीव शाश्वत है और पर्यायार्थिक नय से अशाश्वत है / उमास्वाति ने भी पर्याय के अर्थ में परिणाम का प्रयोग किया है / एक धर्म की निवृत्ति होने पर इतर धर्म की उत्पत्तिरूप द्रव्य की जो परिस्पन्दनात्मक पर्याय है, उसे ऊर्ध्वतासामान्य परिणाम कहते हैं / पर्यायों के प्रकारों की आगमिक आधारों पर चर्चा करते हुए मुनि कन्हैयालाल 'कमल' ने द्रव्यानुयोग (पृ०३८) में कहा है कि प्रज्ञापनासूत्र में पर्याय के दो भेद प्रतिपादित हैं - (1) जीव पर्याय तथा (2) अजीव पर्याय / ये दोनों प्रकार की पर्यायें अनंत होती हैं / पुनः पर्याय के दो भेद हैं - द्रव्य पर्याय और गुण पर्याय.९ | अनेक द्रव्यों में ऐक्य का बोध कराने में कारणभूत द्रव्य पर्याय है। गुणपर्याय वह है जो गुण के द्वारा अन्वय रूप एकत्व प्रतिपत्ति का कारणभूत होती है। एक अन्य अपेक्षा से पर्याय के दो भेद किये गये हैं - 1. अर्थ पर्याय और 2. व्यञ्जन पर्याय / भेदों की परम्परा में जितना सदृश परिणाम प्रवाह किसी एक शब्द के लिए वाच्य बनकर प्रयुक्त होता है, वह पर्याय व्यञ्जन पर्याय कहलाता है तथा परम्परा में जो अन्तिम और अविभाज्य है, वह अर्थ पर्याय कहलाता है जैसे चेतन पदार्थ का सामान्य रूप जीवत्व है / काल कर्म आदि के कारण उनमें उपाधिकृत संसारित्व, मनुष्यत्व, पुरुषत्व आदि भेदों वाली परम्पराओं में से पुरुष शब्द का प्रतिपाद्य जो सदृश पर्याय प्रवाह है, वह व्यञ्जन पर्याय तथा पुरुष रूप में सदृश पर्याय के अन्तर्गत दूसरे बाल, युवा आदि जो भेद हैं, उन्हें अर्थपर्याय कहते हैं / दूसरे शब्दों में कहें तो एक ही पर्याय की क्रमभावी पर्यायों को अर्थ पर्याय तथा पदार्थ की उसके विभिन्न प्रकारों एवं भेदों में जो पर्याय होती है, उसे व्यञ्जन पर्याय कहते हैं। इनमें से व्यञ्जन पर्याय स्थूल और दीर्घकालिक पर्याय है तथा अर्थ पर्याय सूक्ष्म और वर्तमानकालिक पर्याय है / अर्थ पर्याय-मूर्त-अमूर्त सभी द्रव्यों में होती है, जबकि व्यञ्जन पर्याय का सम्बन्ध केवल मूर्त अथवा संसारी जीव व पुद्गल के साथ ही है। पर्यायों का एक विभाजन स्वभाव पर्याय और विभाव पर्याय के रूप में भी मिलता है - जो पर्याय परनिमित्तों से निरपेक्ष होती है, उसे स्वभाव पर्याय तथा जो परनिमित्तों से सापेक्ष होती है उसे, विभाव पर्याय कहा जाता है / पर्याय के लक्षण हैं - एकत्व, पृथकत्व, संख्या, संस्थान, संयोग तथा विभागर / पर्याय द्रव्य से सर्वथा भिन्न नहीं पायी जाती, किन्तु वह द्रव्य स्वरूप ही उपलब्ध होती है / द्रव्य और गुण का सम्बन्ध द्रव्य और गुण के सम्बन्ध को लेकर भारतीय दर्शन में मुख्य रूप से दो अवधारणायें उपलब्ध होती हैं। उनमें से एक अवधारणा एकान्ततः भिन्नता को आधार मानती है तो दूसरी एकान्ततः अभिन्नता को / एकान्त भेद को मानने वाले वैशेषिकों के अनुसार द्रव्य और गुण सर्वथा भिन्न हैं / आद्य क्षण में द्रव्य निर्गुण होता है तदनन्तर समवाय नामक पदार्थ के द्वारा दोनों में सम्बन्ध स्थापित होता है। द्रव्य और गुण की इस पृथकता के दो मुख्य कारण हैं - 1. लक्षण की भिन्नता 2. ग्राहक प्रमाण की भिन्नता