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________________ द्रव्य, गुण और पर्याय का पारस्परिक सम्बन्धःसिद्धसेन दिवाकरकृत 'सन्मति-प्रकरण' के विशेष सन्दर्भ में 117 गुण के भेद गुण के दो भेद किये हैं - 1. सामान्य या साधारण गुण तथा 2. विशेष या असाधारण गुण / जो गुण समस्त द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं, सामान्य गुण कहलाते हैं / साधारण या सामान्य गुणों से केवल द्रव्यत्व की सिद्धि होती है और विशेष गुणों से द्रव्य विशेष की सिद्धि होती है जैसे - चैतन्य गुण जीव द्रव्य में ही होता है, शेष पांच द्रव्यों में नहीं / अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व ये दस सामान्य गुण पाये जाते हैं / प्रवचनसार की तात्पर्यवत्ति के अनुसार अस्तित्व, नास्तित्व, एकत्व, द्रव्यत्व, पर्यायत्व, सर्वगत्व, असर्वगतत्व, सप्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, मूर्तत्व, सक्रियत्व, अक्रियत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, कर्तृत्व, अकर्तृत्व, भोक्तृत्व, अभोकृत्व. अगुरुलघुत्व इत्यादि सामान्य गुण हैं१२ / नयचक्र, आलापपद्धति, द्रव्यानुयोगतर्कणा आदि ग्रन्थों में उपर्युक्त सामान्य गुणों के अतिरिक्त चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व, अमूर्तत्व चार सामान्य गुणों का उल्लेख और मिलता है। विशेष गुण वे हैं जो समस्त द्रव्यों में समान रूप से उपलब्ध नहीं होते / वे विशेषताएं या लक्षण जिनके आधार पर एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से अलग किया जा सकता है, विशिष्ट गुण कहे जाते हैं / इन विशेष गुणों की संख्या सोलह है - ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण, गतिहेतुत्व, अवगाहहेतुत्व, चेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व / इनमें से जीव व पुद्गल में छ:-छः तथा शेष चार द्रव्यों में तीन-तीन होते हैं। प्रवचनसार टीका तात्पर्यवृत्ति के अनुसार अवगाहनाहेतुत्व, गतिहेतुत्व, स्थितिहेतुत्व, वर्तनाहेतुत्व, रूपादिमत्व, चेतनत्व आदि विशेष गुण हैं। ये क्रमशः आकाश, धर्म, अधर्म, काल, पुद्गल और जीव के विशेष गुण हैं / द्रव्य के अनुसार उसके गुण भी मूर्त, चेतन होते हैं / अकलंक ने अस्तित्व, अन्यत्व, कर्तृत्व, भोक्तृत्व, पर्यायत्व, असर्वगतत्व, अनादिसन्तति- बन्धनबन्धत्व, प्रदेशत्व, अरूपत्व, नित्यत्व आदि भावों को पारिणामिक भाव कहा है१३ / गुण परिणमनशील हैं, किन्तु एकगुण अन्य गुण रूप परिणमन नहीं करता / पर्याय स्वरूप और प्रकार द्रव्य के विकार अथवा अवस्था विशेष को पर्याय कहते हैं / जैन दार्शनिकों के अनुसार द्रव्य में घटित होने वाले विभिन्न परिवर्तन ही पर्याय कहलाते हैं / व्युत्पत्ति के अनुसार जो स्वभाव-विभाव रूप से गमन करती है, परणमन करती है, वह पर्याय है।४ / दूसरी परिभाषा के अनुसार जो द्रव्य और गुण दोनों के आश्रित रहता है, उसे पर्याय कहा जाता है / जिस प्रकार द्रव्य का सहभावी धर्म गुण कहलाता है उसी प्रकार द्रव्य का क्रमभावी धर्म पर्याय कहलाता है, जैसे-सुख, दुःख और हर्ष आदि / दूसरे शब्दों में कहें तो द्रव्य का अन्वयी अंश गुण और व्यतिरेकी अंश पर्याय कहलाता है / द्रव्य भेद में अभेद का प्रतीक है, जबकि पर्याय अभेद में भेद का / कहा भी गया है 'परिसमन्तादायः पर्याय:१६' अर्थात् जो सब ओर से भेद को प्राप्त करे, वह पर्याय है। पूज्यपाद ने पर्याय, विशेष, अपवाद, व्यावृत्ति को एकार्थक बताया है / पर्याय के लिये 'परिणाम' शब्द का प्रयोग भी मिलता है। ऊर्ध्वतासामान्य रूप द्रव्य की
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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