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________________ 116 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य तीनों की संयुक्त अवस्था को द्रव्य कहा है / अन्यत्र द्रव्य के परिमाणात्मक स्वरूप की चर्चा करते हुए वे लिखते हैं - एक द्रव्य के भीतर जो अतीत, वर्तमान और अनागत अर्थपर्याय और व्यंजनपर्याय होती है, वह द्रव्य उतना ही होता है / सिद्धसेन ने द्रव्य के सन्दर्भ में पर्याय की चर्चा की है गुण की नहीं, क्योंकि वे मूलतः गुण और पर्याय को अभिन्न मानते हैं / जैन दर्शन में द्रव्य के छ: प्रधान भेद किये गये हैं - जीव, धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और काल / द्रव्य के दो भेद संयोग और समवाय द्रव्य भी मिलते है / इसके अतिरिक्त द्रव्य के मूर्तअमूर्त, क्रियावान-भाववान, एक-अनेक अपेक्षा परिणामी व नित्य अपेक्षा, सप्रदेशी-अप्रदेशी, क्षेत्रवानअक्षेत्रवान, सर्वगत-असर्वगत आदि भेद भी मिलते हैं / गुण स्वरूप और प्रकार द्रव्य के सहभावी धर्म को गुण कहते हैं / आगम साहित्य में मूलतः द्रव्य और पर्याय की चर्चा है / कहीं-कहीं गुण की भी चर्चा उपलब्ध होती है, किन्तु वहाँ गुण का वह अर्थ अभिप्रेत नहीं है जो वर्तमान सन्दर्भ में विवक्षित है। आचारांग सूत्र में एक स्थल पर आया है - 'जे गुणे से आवट्टे'। यहाँ गुण का अर्थ इन्द्रिय-विषय है। इसी प्रकार व्याख्याप्रज्ञप्ति में पंचास्तिकाय के सन्दर्भ में 'गुण' शब्द का प्रयोग अनेकशः हुआ है, किन्तु वहाँ गुण का अर्थ सहभावी धर्म के अर्थ में न होकर उपकारक शक्ति के अर्थ में है। प्राचीन आगम साहित्य में सहभावी व क्रमभावी-दोनों ही धर्मों का पर्याय पद से निरूपण किया गया है / अनुयोगद्वार और उत्तराध्ययन में 'गुण' का ज्ञेय के सन्दर्भ में स्वतंत्र निरूपण हुआ है पर अनुयोगद्वार और उत्तराध्ययन की परम्परा उत्तरकालीन है / उत्तराध्ययन सूत्र में द्रव्य को गुणों का आश्रय न मानकर गुणों को एकमात्र द्रव्याश्रित सिद्ध किया है / वस्तुतः गुण द्रव्य के आश्रित रहते हैं, यह परिभाषा गुणों का द्रव्य के साथ नैरन्तर्य सूचित करती है। उत्तराध्ययन में गुण और पर्याय का स्वतंत्र लक्षण किया गया है / उमास्वाति ने भी द्रव्य की परिभाषा में गुण और पर्याय दोनों का उल्लेख किया है / गुण की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा है कि 'द्रव्याश्रया निर्गुण गुणाः 11 / उमास्वाति की इस परिभाषा में निर्गुण विशेषण का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। यह परिभाषा सामान्यतया आत्मविरोधी सी प्रतीत होती है, किन्तु इस परिभाषा की मूलभूत दृष्टि यह है कि यदि हम गुण का भी गुण मानेंगे तो अनवस्था दोष का प्रसंग आयेगा / द्रव्य के साथ गुणों की अपरिहार्यता है, किन्तु गुण में गुणों का सद्भाव नहीं है / वैशेषिक दर्शन में गुण की द्रव्य से स्वतन्त्र सत्ता मानी गयी है / उनके अनुसार द्रव्य जब उत्पन्न होता है तब प्रथम क्षण में वह निर्गुण होता है / बाद में समवाय के द्वारा द्रव्य और गुण का सम्बन्ध स्थापित होता है / जैन दर्शन के अनुसार द्रव्य गुण का अविनाभावी सम्बन्ध है / जिस प्रकार द्रव्य की गुणों से पृथक् कोई सत्ता नहीं है उसी प्रकार गुणों की द्रव्य से पृथक् कोई अभिव्यक्ति नहीं होती / भट्ट अकलंक ने "नित्यं द्रव्यमाश्रित्य ये वर्तन्ते ते गुणा इति" कह कर गुण की परिभाषा की है।
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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