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________________ 110 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा रूप नित्यता की स्थापना होती है / यदि एक शाश्वत सत्ता की क्रमवर्ती समस्त पर्यायों को द्रव्यापेक्षया अभिन्न स्वीकार करने के साथ ही साथ पर्यायापेक्षया भी अभिन्न स्वीकार किया जाय तथा उसे वर्तमान पर्याय विशिष्ट रूप से सत् स्वीकार करने के साथ ही साथ भूत, भविष्यकालीन पर्यायों रूप से वर्तमान समय में असत् स्वीकार नहीं किया जाय तो पदार्थ की सभी पर्यायों के एक ही समय में अवस्थित हो जाने के कारण सत्ता मात्र एक समयवर्ती हो जायेगी तथा उसकी नित्यता की स्थापना असम्भव होगी / 43 ___ एक द्रव्य अपनी समस्त पर्यायों में पूर्णरूपेण एक रूप विद्यमान है अथवा वह अनेक विशेष स्वभावों रूप से परिणमनशील एक सामान्य सत्ता है, इसका निर्णय प्रमाण द्वारा ही हो सकता है। प्रत्यक्ष, अनुमानादि प्रमाणों द्वारा शुद्ध निविशेष सामान्य सत्ता की उपलब्धि नहीं होती, बल्कि सामान्यविशेषात्मक सत्ता ही ज्ञात होती है। जैसे प्रत्यक्ष द्वारा हमें कण, पिण्डादि किसी विशेष स्वरूप में अवस्थित मिट्टी ही ज्ञात होती है तथा इन विशेष स्वरूपों से रहित शुद्ध सामान्य मृत्तिका द्रव्य की उपलब्धि हमें कभी नहीं होती / 44 अद्वैत वेदान्ती प्रत्यक्ष की प्रामाणिकता को स्वीकार नहीं करते / मण्डन मिश्र कहते हैं कि प्रत्यक्ष की प्रामाणिकता व्यावहारिक दृष्टि से ही है / पारमार्थिक दृष्टि से प्रत्यक्ष प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि शब्द प्रमाण द्वारा इसका खण्डन हो जाता है / शब्द प्रमाण सत्ता के परिवर्तनरहित अद्वैत स्वरूप का प्रतिपादन करता है। प्रत्यक्ष से विरोध होने के कारण इसे मिथ्या नहीं कहा जा सकता. क्योंकि यह प्रत्यक्ष से अधिक शक्तिशाली है / वस्तु स्वरूप के प्रतिपादन की क्षमता शब्द प्रमाण में ही है / अतः इसके द्वारा प्रत्यक्ष की भ्रमात्मकता की सिद्धि होती है / 45 प्रश्न उठता है कि क्या सत्ता के उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक, सामान्य विशेषात्मक स्वरूप की यथार्थता को स्वीकार किये बिना उसके प्रति गुरूपदेश, शास्त्र रचना आदि रूप शब्द प्रमाण की प्रवृत्ति संभव है ? जो जीवात्मा अनादि अविद्या के वशीभूत होकर, इस दृश्यजगत को यथार्थ समझ रहे हैं, उनके प्रति इस ज्ञान की भ्रमात्मकता तथा सत्ता के यथार्थ स्वरूप की सिद्धि के लिये गुरु द्वारा उपदेशादि कार्यों का सम्पादन होता है। इन कार्यों की सार्थकता जीवात्मा के अनादि अविद्या ग्रस्त अवस्था के विनाशपूर्वक उसके तत्त्वज्ञान रूप नवीन विशेष स्वरूप में परिवर्तित होने पर ही है। यदि कहा जाय कि चेतना का अविद्या और विद्या रूप भेद व्यावहारिक सत्य ही है; पारमार्थिक दृष्टि से उसमें इन भेदों का पूर्णतया अभाव है तो वह मान्यता भी एक अन्वयी ज्ञाता में अनेक स्तरभेदों की स्थापना करती है। जो चेतना व्यावहारिक सत्य की अनुभूति स्वरूप है वह सविषयक है; एक वस्तु के युगपत् और क्रमवर्ती अनेक स्वभावों का अनुभव कर रही है तथा वही चेतना शब्द प्रमाण की सहायता से कालान्तर में व्यावहारिक सत्य के स्तर से ऊपर उठकर पारमार्थिक सत्य की अनुभूति रूप से परिणमित होती है। यदि चेतना का व्यावहारिक और पारमार्थिक सत्य की अनुभूति रूप अवस्था भेद भी आभास मात्र मान लिया जाय तो ऐसी स्थिति में दृश्य जगत् के ज्ञान के मिथ्यात्व तथा सच्चिदानन्दब्रह्म की सत्ता की सिद्धि का कोई आधार शेष नहीं रहेगा / 46 संसारी जीव और पुद्गल द्रव्य का परिणमन अन्य द्रव्य सापेक्ष और कारणात्मक नियमों से नियंत्रित
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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