________________ सत्ता का द्रव्यपर्यायात्मक पर्याय 109 है, वही कल वृक्ष बन सकती है, लकड़ी बन सकती है। वस्तुतः सभी विशेषणों से रहित शुद्ध सत् स्वरूपता या सद्भाव ही सत्ता का मूल स्वभाव है / सत् वही है जो अबाधित है, जिसका कभी किसी ज्ञान द्वारा खण्डन नही होता / वस्तु की मिट्टी, वृक्ष आदि विशेष स्वरूप में सत्ता नहीं है, क्योंकि इसका अन्य ज्ञान द्वारा खण्डन हो जाता है। जिस पदार्थ के प्रति हमें अभी 'यह वृक्ष है' रूप ज्ञान हो रहा है, उसी पदार्थ के प्रति कालान्तर में हमें 'यह वृक्ष नहीं है' रूप निश्चय उस पदार्थ के वृक्ष रूप विशेष स्वरूप का खण्डन कर देता है / लकड़ी, वृक्ष आदि विभिन्न विशेष स्वरूपों के आधार रूप में अवस्थित शुद्ध सत्ता सामान्य या सत् स्वरूपता ही उन पदार्थों का वास्तविक स्वरूप है, क्योंकि उनके विशेष रूपों के ज्ञान का निरन्तर अन्य ज्ञान द्वारा खण्डन होते रहने पर भी उनकी सत्ता का खण्डन किसी भी ज्ञान द्वारा कभी नहीं होता / पदार्थ की सत्ता पहले भी थी, अभी भी है और भविष्य में भी रहेगी / अतः सत्ता सामान्य विशेषात्मक न होकर शुद्ध निर्विशेष सामान्य सत्ता है। यह स्वयं प्रकाश होने के कारण चैतन्य स्वरूप और आनन्दमय है। यह सच्चिदानन्द सत्ता ब्रह्म कहलाती है। जो अद्वैत स्वरूप, कूटस्थनित्य और सर्वव्यापक है। इसमें किसी भी प्रकार के भेद, किसी भी प्रकार की अनेकरूपता का सद्भाव नहीं है। यह सच्चिदानन्द ब्रह्म अनेक जड़ चेतन पदार्थों रूप से दृष्टिगोचर हो रहे नामरूपात्मक जगत के आधार रूप में विद्यमान उनका मूल उपादान कारण है / 2 प्रश्न उठता है कि यदि ब्रह्म जगत के सभी पदार्थों का मूल उपादान कारण है तो, ब्रह्म का जगत रूप में परिवर्तन मात्र नाम रूप का परिवर्तन नहीं हैं, क्योंकि ब्रह्म के निरवयव, अनिर्वचनीय, चेतन सत्ता होने के कारण वह नाम और आकृति से रहित तत्त्व है; ऐसी स्थिति में ब्रह्म जगत रूप में रूपान्तरण वास्तविक परिवर्तन क्यों नहीं होगा ? इस प्रश्न के उत्तर में शंकराचार्य कहते हैं कि ब्रह्म जगत रूप में परिवर्तित नहीं होता, बल्कि ईश्वर अपनी माया द्वारा सत्ता के मूल अद्वैत स्वरूप को आवृत्त करके, उस पर अनेक भेदों से परिपूर्ण जगत को आरोपित कर देता है / जिस प्रकार अज्ञानी व्यक्ति को सीपी में चाँदी रूप भ्रम हो जाता है, उसी प्रकार अनादि अविद्याग्रस्त जीवात्मा ईश्वर की माया के छलावे में आ जाता है। वह माया द्वारा आरोपित नाम रूपात्मक जगत को यथार्थ समझ लेता है तथा उसके अधिष्ठान रूप में विद्यमान सच्चिदानन्द ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप को नहीं जान पाता / ईश्वर, माया, जीव, जगत आदि व्यावहारिक सत्ताएँ हैं / पारमार्थिक दृष्टि से इनकी सत्ता न होकर पूर्ण रूपेण निर्विकार सच्चिदानन्द ब्रह्म की ही सत्ता है। जैन मत जैन दार्शनिक उपर्युक्त मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं कि सत्ता सदैव द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप में ही अवस्थित होती है। वह प्रतिसमय वर्तमान पर्याय विशिष्ट द्रव्य है तथा इस द्रव्य का वर्तमान समय में इस रूप में सद्भाव होने के साथ ही साथ भूत, भविष्यकालीन पर्यायों रूप से अभाव भी है। उसका शाश्वत अस्तित्व उसकी प्रतिक्षणवर्ती पर्याय रूप से परिणमन पूर्वक सम्भव है। इस परिणमनशील स्वभाव के कारण ही उसके प्रति वह सत्ता भूतकाल में भी थी, वर्तमान समय में भी है और भविष्य में भी रहेगी;