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________________ 108 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा अवस्था में जीव के ज्ञानादि गुणों को परिणमन इन्द्रिय आदि निमित्त कारणों के अवलम्बन पूर्वक होता है / लेकिन मुक्तावस्था में जीव के इन गुणों की अभिव्यक्ति इन्द्रियादि पर पदार्थों से निरेपक्ष रूप से ही होती है / इस अवस्था में जीव किसी भी अन्य द्रव्य की सहायता लिये बिना अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य से सम्पन्न होता है / जीव की मुक्त पर्याय, पुद्गल द्रव्य की परमाणु रूप पर्याय तथा धर्म, अधर्म, आकाश और काल द्रव्य की पर्यायें अन्य द्रव्य के संयोग से रहित शुद्ध द्रव्य की पर्याय हैं, इसलिए ये स्वभाव पर्याय कहलाती हैं / इन पर्यायों की उत्पत्ति में एक अनिवार्य निमित्त कारण काल द्रव्य है, जो उदासीन निमित्त कारण है। इसके विपरीत जीव की पुद्गल के संयोग जन्य संसारी अवस्था और उसमें भी मनुष्य, पशु आदि अवस्थाएं तथा विभिन्न पुद्गल परमाणुओं के संयोग से उत्पन्न स्कंध रूप अवस्था विभाव पर्याय हैं / इनकी उत्पत्ति में जीव, पुद्गल आदि अन्य द्रव्यों की सहकारी कारण रूपता प्रेरक निमित्त है। इस प्रकार किसी भी द्रव्य का परिणमन स्व पर प्रत्यय हेतुक ही होता है / उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि जैन दर्शन के अनुसार जो भी अस्तित्ववान है, वह परिणामी नित्य सत्ता है। जगत में विद्यमान कोई भी पदार्थ अपने मूलस्वरूप को कभी नहीं छोड़ता, ज्ञानदर्शनसुखवीर्य आत्मा का शाश्वत स्वभाव है तथा वह न तो कभी अपने इस चेतनमय स्वरूप का परित्याग करता है और न ही उसमे रूपादि गुणों से युक्त जड़ स्वरूप की कभी उत्पत्ति हो सकती है। इस प्रकार द्रव्य का मूल स्वभाव सदैव वही रहता है, ध्रुव है / द्रव्य का यह अनादि अनन्त शाश्वत स्वरूप ही निरन्तर नये विशेष स्वरूप से परिणमित होता हुआ विद्यमान है / इसलिए सत्ता सदैव सामान्य-विशेषात्मक, द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप में अवस्थित है। अद्वैत वेदान्त मत : धौव्य ही सत्ता का स्वरूप अद्वैत वेदान्त के अनुसार सत्ता पूर्णरूपेण सामान्य स्वरूप और कूटस्थ नित्य होती है, उस सामान्य और शाश्वत सत्ता का अनेक विशेष रूपों में दृष्टिगोचर हो रहा परिवर्तन वास्तविक परिवर्तन न होकर परिवर्तन का आभास मात्र है। परिवर्तन सौपाधिक या अन्य कारण सापेक्ष होता है और इसलिए वह सत्ता का स्वरूप नहीं हो सकता। स्वभाव तो अन्य निरपेक्ष, अकारण और इसलिए कूटस्थ नित्य होता है। बाहरी कारण सत्ता के मूल स्वरूप को परिवर्तित करने में असमर्थ है / इनके द्वारा जो है, उसके संस्थान या आकृति को परिवर्तित किया जा सकता है तथा इसके आधार पर उसे भिन्न नाम दिया जा सकता है। लेकिन नाम रूप के परिवर्तन से सत्ता का मूल स्वरूप परिवर्तित नहीं होता, इसलिए वह परिवर्तन का आभास मात्र है। उदाहरण के लिये चूर्ण, पिण्ड, घट, कपाल आदि क्रमवर्ती विकारों रूप से विद्यमान मिट्टी मिट्टी ही रहती है। परिवर्तन की इस प्रक्रिया में उसकी आकृति बदलती है, नाम बदलता है, लेकिन इसके द्वारा मिट्टी अपनी मिट्टीरूपता को छोड़कर लोहा या सोना नहीं हो जाती / अतः नाम रूप का परिवर्तन वस्तु का वास्तविक परिवर्तन नहीं है / मिट्टी रूपता भी सत्ता का मूल स्वभाव नहीं है, क्योंकि जो सत्ता आज मिट्टी रूप में अवस्थित
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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