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________________ सत्ता का द्रव्यपर्यायात्मक पर्याय 107 उनकी पर्याय शक्ति का स्वरूप बदल जाता है। इनमें इस पर्याय के अनुरूप अव्यवहित उत्तर क्षण में तथा तदनुसार परवर्ती क्षणों में परिवर्तन की सम्भावनाएं बदल जाती हैं; उनमें से जिस पर्याय के अनुकूल निमित्त कारणों का सद्भाव होता है। मृत्तिकापिण्ड उस पर्याय रूप से रूपान्तरित हो जाता है। यदि इस स्तर पर उसे स्थास रूपता की प्राप्ति हेतु अनिवार्य निमित्त कारणों का संयोग प्राप्त हो, तब ही वह स्थास रूपता को प्राप्त करते हुए घट पर्याय की ओर अग्रसर हो सकता है, लेकिन यदि ऐसा न होकर वह किसी अन्य पर्याय को प्राप्त करता है तो उसकी परिवर्तन की दिशाएं बदल जाती हैं / इस प्रकार एक द्रव्य की द्रव्यशक्ति के नित्य और कारण निरपेक्ष होने के कारण उसका द्रव्यात्मक स्वरूप भी नित्य और अवस्थित है, लेकिन उसकी पर्याय शक्ति के अनित्य और कारण सापेक्ष होने के कारण उसकी पर्यायें अनियत या अनवस्थित हैं। इस प्रकार द्रव्य के विशेष पर्यायों रूप से परिणमन में नियतिवाद का अभाव है। पुद्गल द्रव्य का परिणमन कारणात्मक नियमों के अनुसार अनिवार्यतया होने वाला परिणमन है। पर्यायशक्ति विशिष्ट द्रव्य शक्ति तथा एक विशेष पर्याय रूप से परिणमन के लिए अनिवार्य निमित्त कारणों का सद्भाव होने पर पुद्गल द्रव्य अनिवार्यतया उस विशेष पर्याय रूप से रूपान्तरित होता है। उदाहरण के लिए मृत्तिका घट में मुद्गर का प्रहार होने पर टूटने की उपादान योग्यता होने तथा मुद्गर के प्रहार रूप निमित्त कारण की प्राप्ति होने पर घट अनिवार्यतया टूटता है / पुद्गल द्रव्य के विपरीत उपादान निमित्त कारणों के सद्भावानुसार परिवर्तन की अनिवार्यता जीव के स्वभाव में नहीं है / जीव एक चेतन द्रव्य है / ज्ञानदर्शनोपयोग रूप होने के कारण सदैव किसी न किसी पदार्थ की ओर उन्मुख होना, उसे विषय बनाना तथा उसे जानने के लिए प्रवृत्त होना जीव का स्वभाव है / इस उपयोगात्मक स्वरूप के कारण जीव के परिणमन में स्वतन्त्रता विद्यमान है / निश्चित रूप से जीव का परिवर्तन भी स्व पर प्रत्यय हेतु होता है, लेकिन उपादान योग्यता और निमित्त कारणों का सद्भाव जीव के परिणमन का पर्याप्त कारण न होकर मात्र अनिवार्य कारण है / इन कारणों के सद्भावानुसार जीव के परिणमन की सम्भावनाएं सीमित हो जाती हैं / इन सीमित सम्भावनाओं में से जीव चयनपूर्वक जिस पर्याय की प्राप्ति हेतु प्रवृत्त होता है, उस रूप में परिणमित होता है। उदाहरण के लिए जिस जीव ने मनुष्य पर्याय प्राप्त की है, जो आठ वर्ष से अधिक आयु का हो चुका है, उसमें प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उपादान योग्यता विद्यमान होने तथा गुरु के उपदेश रूप निमित्त कारण का सद्भाव होने पर भी वह सम्यग् दर्शन रूप पर्याय को अनिवार्यतया प्राप्त नहीं करता / इन अनिवार्य कारणों का सद्भाव होने पर भी यदि वह अपनी चेतना को तत्त्व चिंतन पर केन्द्रित करता है, तो ही उसे सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो सकती है, लेकिन यदि वह भोगों में लीन हो जाये तो उसे सम्यग्दर्शन होना सम्भव नहीं है / अथवा एक समय में जीव में पांचों इन्द्रियों के विषयों को जानने की उपादान योग्यता होने तथा इन सभी इन्द्रियों तथा इनके विषय रूप बाह्य सामग्री का सद्भाव होने मात्र से व्यक्ति की अनन्तर क्षणवर्ती ज्ञान पर्याय का स्वरूप निर्धारित नहीं होता / इसके विपरीत जीव जिस इन्द्रिय के विषय को जानने हेतु प्रवृत्त होता है, उसी इन्द्रिय के विषय को जानता है / कारण सामग्री अनन्तरवर्ती क्षण में जीव के परिणमन की सम्भावनाओं को सीमित तो कर सकती है, लेकिन उसमें उसके परिणमन को निर्धारित करने की सामर्थ्य नहीं है / यद्यपि संसारी
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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