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________________ 103 सत्ता का द्रव्यपर्यायात्मक पर्याय ध्रौव्य स्वरूप नहीं हो सकेगी।२४ इस प्रकार जो क्रमवर्ती पर्यायें अन्योन्याभाव रूप हैं, उनमें एक द्रव्यरूपता सम्भव नहीं है, क्योंकि एक ही वस्तु भेद-अभेद, एक-अनेक आदि द्विरूपता से युक्त नहीं हो सकती / 25 वस्तुतः क्षणिक पदार्थ की ही सत्ता है। जो भी सत् है वह मात्र एक क्षणस्थायी है तथा अगले क्षण उसका अनिवार्यतया विनाश हो जाता है। यदि ऐसा न मानकर पदार्थ को अनेक क्षणस्थायी या शाश्वत स्वीकार किया जाये तो प्रश्न उठता है कि नष्ट होना वस्तु का स्वभाव है अथवा नहीं ? यदि है तो अगले क्षण उसका विनाश अवश्यसम्भावी है, यदि नहीं है तो फिर उसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता / ऐसी स्थिति में वस्तु सदैव अविनाशी ही रहनी चाहिए तथा उसका विनाश असम्भव होना चाहिए / 26 सत्ता नित्य नहीं हो सकती, क्योंकि सत् वही होता है, जो अर्थक्रियाकारी अर्थात् कार्योत्पादन की सामर्थ्य से सम्पन्न हो / कार्योत्पत्ति उपादान कारण के विनाश पूर्वक होती है। जैसे बीज से अंकुर की उत्पत्ति बीज के विनाश पूर्वक होती है / नित्य पदार्थ की सत्ता नहीं है, क्योंकि वह परिवर्तन रहित होने के कारण अर्थक्रियाकारी नहीं हो सकता। यह सामर्थ्य क्षणिक पदार्थ में ही विद्यमान है और इसलिए क्षणिक पदार्थ की ही सत्ता है / 28 प्रत्यक्ष द्वारा हमें पूर्णरूपेण विलक्षण क्षणिक पदार्थों का ही ज्ञान होता है / स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा हम घट ज्ञान, पट ज्ञान आदि प्रतिक्षणवर्ती तथा परस्पर विलक्षण ज्ञानों को ही जानते हैं, तथा इन क्षणिक ज्ञानों में व्याप्त एक अन्वयी आत्मा द्रव्य हमें कभी ज्ञात नहीं होता / इन्द्रिय प्रत्यक्ष द्वारा हमें जगत की प्रत्येक वस्तु परिवर्तनशील स्वरूप में ज्ञात होती है तथा हमें कभी किसी नित्य सत्ता की उपलब्धि नहीं होती / परिवर्तन पूर्णक्षणवर्ती पदार्थ के विनाशपूर्वक उत्तरक्षणवर्ती पदार्थ की उत्पत्ति है / उपादान कारण रूप पूर्वक्षणवर्ती पदार्थ के विनाशपूर्वक उत्तरक्षणवर्ती पदार्थ की उत्पत्ति है / उपादान कारण रूप पूर्वक्षणवती पदार्थ और कार्य रूप उत्तरक्षणवर्ती पदार्थ परस्पर पूर्णरूपेण विलक्षण और स्वतंत्र सत्ताएँ हैं, तथा कारण के निरन्वय विनाश पर्वक कार्य की उत्पत्ति होती है। जिस प्रकार तेल की भिन्न बंद के जलने से उत्पन्न हो रही दीपक की प्रत्येक लौ नयी लौ है, नदी में प्रतिक्षण नया जल है, उसी प्रकार कारणकार्य रूप से सम्बन्धित क्षणिक पदार्थों की श्रृंखला में उत्पन्न हो रहा प्रत्येक पदार्थ पूर्णरूपेण नवीन और स्वतन्त्र सत्ता है / इन क्षणिक पदार्थों में सादृश्य के कारण इन्हें एक अन्यवी द्रव्य समझ लिया जाता है, जो अनादि वासना जनित भ्रममात्र है / 29 जैन मत ___ जैन दार्शनिक बौद्धों की आपत्तियों को अस्वीकार करते हुए कहते हैं, कि केवल मात्र विरोध दोष की कल्पना के आधार पर एक ही वस्तु में सामान्य और विशेष, विनाशवान और अविनाशी धर्मों के युगपत् सद्भाव का निषेध नहीं किया जा सकता / ज्ञान ही वस्तु व्यवस्था का नियामक है / उसके द्वारा अनुगत व्यावृत्त, परिवर्तनशील-स्थायी वस्तु ही ज्ञात होती है। हम देखते हैं कि जो तन्तु पहले पृथक्पृथक् तन्तु रूप अवस्था में विद्यमान थे, वे ही तन्तु अब आतानवितान रूप से संयुक्त तन्तु-वस्त्र रूपता को प्राप्त कर रहे हैं / 'पृथक्-पृथक् तन्तु' तथा 'परस्पर संयुक्त तन्तु' रूप दो परस्पर विलक्षण और उत्पत्तिविनाशवान पर्यायों के प्रत्यक्ष पूर्वक हो रहा यह प्रत्यभिज्ञान ये वही तन्तु है" उन पर्यायों की एक
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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