SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 102 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा मृतिका द्रव्य अग्नि, दण्ड, चक्र, कुम्हार आदि निमित्त कारणों की सहायता से पिण्ड रूप से नष्ट होकर क्रमशः स्थास, कोश, कुशूल रूप से परिवर्तित होता हुआ घटरूपता को प्राप्त करता है / इस प्रकार एक स्थायी मृतिका द्रव्य अपने परिवर्तनशील स्वभाव के कारण अनेक क्रमवर्ती पर्यायों स्वरूप होता है। ये कण, पिण्डादि मृत्तिका द्रव्य के कालक्रम से हो रहे परस्पर विलक्षण उत्पत्तिविनाशवान अनेक स्वभाव हैं, जो परस्पर सत्ताएं न होकर एक स्थायी मृत्तिका द्रव्य-एक सत्ता हैं / मिट्टी के कण, पिण्डादि पर्यायें मृत्तिकामय ही है। मृतिकाल सामान्य स्वरूप की अपेक्षा ये पर्यायें ही ध्रुव हैं, क्योंकि इस स्वरूप की अपेक्षा ये निरन्तर विद्यमान हैं। साथ ही कण, पिण्डादि पर्यायों की अपेक्षा 'मिट्टी ही उत्पत्ति विनाशवान है। वह जिस समय जिस पर्याय में अवस्थित है, उसी रूप है तथा उस रूप से नष्ट होकर ही नवीन विशेष स्वभाव को प्राप्त करती है। जो मिट्टी कण रूप से अवस्थित है, उसमें मिट्टी मात्र से समान रूप से पायी जाने वाली विशेषताओं का सद्भाव होने के साथ ही साथ कण रूप विशेष स्वरूप के अनुरूप सामर्थ्य भी है। जैसे उसमें अपने में बोये गये बीज को हवा, पानी, धूप आदि की सहायता से अंकुरित करने की सामर्थ्य है, लेकिन जब वही मिट्टी कण रूप से नष्ट होकर घटरूपता को प्राप्त कर लेती है तो उसकी यह सामर्थ्य समाप्त हो जाती है तथा उसमें जल धारण करने की सामर्थ्य रूप नवीन क्षमता की उत्पत्ति होती है। मिट्टी अपने आप में मूल द्रव्य न होकर अनेक पुद्गल परमाणुओं के संयोग से निर्मित दीर्घकालिक व्यञ्जन पर्याय है। जिस प्रकार यह कण, पिण्डादि अनेक क्रमवर्ती पर्यायों रूप से भवनशील एक अन्वयी द्रव्य है; वह उन सभी पर्यायों का ऊर्ध्वता सामान्य स्वरूप है तथा कण, पिण्डादि उस सामान्य स्वरूप के कालक्रम से उत्पन्न नष्ट हो रहे अनेक विलक्षण स्वभाव हैं: उसी प्रकार जीव. पदगलादि प्रतिसमय सामान्यविशेषात्मक, उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक सत्ता है। सामान्य स्वरूप की अपेक्षा वे ध्रुव या अविनाशी हैं, क्योंकि इस स्वरूप की अपेक्षा न ही उनकी कभी उत्पत्ति हुई है और न ही कभी विनाश होगा तथा विशेष स्वरूप की अपेक्षा वे प्रतिसमय उत्पत्तिविनाशवान है / 23 इस अपेक्षा से उनमें प्रति समय पूर्व स्वरूप का व्यय तथा नवीन स्वरूप की उत्पत्ति हो रही है / (द्रव्य की एक समयवर्ती सूक्ष्म पर्याय को अर्थ पर्याय कहा जाता है / ) एक उत्पत्तिविनाश रहित सामान्य स्वभावी द्रव्य में प्रतिक्षण घटित हो रही इस उत्पत्तिविनाश की प्रक्रिया के कारण वह शाश्वत द्रव्य अनन्त पर्यायात्मक सत्ता है / बौद्ध मत : उत्पाद व्यय ही सत्ता का स्वरूप बौद्ध उपर्युक्त सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहते हैं कि अविनाशिता और विनाशवानता परस्पर विरोधी धर्म होने के कारण एक ही सत्ता का स्वरूप नहीं हो सकते / जैन दार्शनिक द्रव्य को सामान्य रूप से अविनाशी और विशेष रूप से विनाशवान कहते हैं, लेकिन जब द्रव्य और पर्याय को अन्योन्यात्मक कहा जाता है तो द्रव्य से अभिन्न होने के कारण द्रव्य के समान ही पर्याय भी अविनाशी होगी अथवा पर्याय के विनाशवान होने के कारण उससे अभिन्न द्रव्य की विनाशवानता भी सिद्ध होगी। इस प्रकार द्रव्य और पर्याय में अभेद होने पर या तो वस्तु सम्पूर्णतः विनाशवान ही होगी या अविनश्वर ही होगी। यदि इनमें भेद स्वीकार किया जाये तो द्रव्य और पर्याय एक सत्ता के परस्पर निरपेक्ष दो अंश होंगे तथा पर्याय मात्र उत्पाद व्यय स्वरूप और द्रव्य मात्र ध्रुव ही होगा। ऐसी स्थिति में वस्तु सम्पूर्णतः उत्पादव्यय
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy