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________________ सत्ता का द्रव्यपर्यायात्मक पर्याय 101 सत्ता का द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप ___ एक द्रव्य का अनेक गुणात्मक सामान्य स्वरूप अनादि अनन्त और कारणात्मक नियमों से परे है। यह द्रव्य का स्वतः सिद्ध स्वभाव है, जो अपने शक्ति-व्यक्तिमय स्वरूप के कारण द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्याप्त होकर, उन पर्यायों की एक द्रव्यरूपता को स्थापित कर रहा है / सत्ता के इस विशेष पर्यायों रूप से निरन्तर परिणमनशील शाश्वत और सामान्य स्वरूप को द्रव्य या उर्ध्वता सामान्य भी कहा जाता है / जैसा कि हम देख चुके हैं, द्रव्य शब्द का व्युत्पत्ति लक्ष्य अर्थ है - जो काल क्रम से होने वाली पर्यायों रूप से द्रवित होता है, गमन करता है, वह द्रव्य है। इस व्युत्पत्ति के अनुसार निरन्तर नयी पर्याय रूप से द्रवणशील, परिणमनशील त्रैकालिक वस्तु अंश को द्रव्य कहा जाता है / यह उन सभी पर्यायों का अन्वयी और सामान्य स्वरूप होने के कारण उनका ऊर्ध्वता सामान्य स्वरूप भी है / 19 इस शाश्वत्, सामान्य और परिणमनशील सत्ता के कालक्रम से हो रहे परस्पर विलक्षण उत्पत्तिविनाशवान अनेक परिणाम पर्याय कहलाते हैं / 20 परिवर्तन, परिणनम, परिणाम पर्याय से सब पर्यायवाची शब्द हैं। इस प्रकार एक परिणामी नित्य सत्ता के सामान्य, ध्रुव, अन्वयी और शक्तिमय स्वरूप को द्रव्य कहा जाता है तथा उसके विशेष, उत्पत्तिविनाशवान, व्यतिरेकी और व्यक्त स्वरूप पर्याय कहलाते हैं / द्रव्य और पर्याय में शाब्दिक और लाक्षणिक दृष्टि से भेद होते हुए भी तात्विक रूप से अभेद है। ये परस्पर एक दूसरे की आत्मा या स्वभाव होते हुए एक द्रव्यपर्यायात्मक सत्ता हैं / अनेक गुणात्मक द्रव्य अपने अनन्तशक्तिसम्पन्न, परिणमनशील सामान्य स्वभाव के कारण सदैव विशेष पर्याय स्वरूप होकर ही विद्यमान होता है तथा पर्याय रहित द्रव्य की सत्ता कभी नहीं होती। साथ ही द्रव्य रहित पर्याय की सत्ता भी नहीं होती / एक पर्याय परतन्त्र होती है। कुछ होता है, जो रूपान्तरित होता है, परिणमित होता है / इसलिए एक पर्याय की उत्पत्ति द्रव्य में ही, 'द्रव्य से ही होती है तथा द्रव्य रहित पर्याय की सत्ता नहीं होती / 29 एक द्रव्य भी सदैव किसी विशेष पर्याय में ही विशेष पर्याय रूप से ही प्राप्त होता है / इसलिए एक पर्याय ही अनिवार्यता द्रव्यात्मक होती है / द्रव्य शक्ति-रूप, सम्भाव्यता रूप होता है तथा शक्ति अपने आप में न रहकर शक्तिमान व्यक्ति में ही रहती है / इसलिए एक समय विशेष में विद्यमान सामान्यविशेषात्मक व्यक्ति ही वास्तविक सत्ता है / यह अपने सामान्य स्वरूप की एक विशेष अभिव्यक्तिएक पर्याय मात्र नहीं है, बल्कि उसका अनेक गुणात्मक सामान्य स्वरूप अपनी समस्त सम्भावनाओं और परिणमनशील प्रवृत्ति के साथ उस पर्याय का स्वरूप है / इसलिए वह पर्याय एक क्षणिक व्यक्ति मात्र न होकर उत्तरवर्ती पर्यायों रूप से परिवर्तन की सामर्थ्य और प्रवृत्तिमय द्रव्य भी है। अपने इसी द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप के कारण वस्त प्रतिसमय उत्पादव्ययध्रौव्य स्वरूप है। वह उत्तरवर्ती क्षण में द्रव्य रूप से वही रहते हुए पूर्वपर्याय रूप से नष्ट होकर नयी पर्याय रूप से उत्पन्न हो रही है। उदाहरण के लिए एक समय विशेष में विद्यमान मृत्तिका कण अपने मृतिकात्व सामान्य की एक विशेष अभिव्यक्ति होने के साथ ही साथ उत्तरवर्ती पर्याय रूप से परिणमनशील द्रव्य भी हैं / अपने इस द्रव्यपर्यायात्मक स्वरूप के कारण वे मृत्तिकाकण उत्तरवर्ती क्षण में जल का संयोग होने पर अपने मृत्तिकात्व सामान्य को नहीं छोड़ते हुए कण से नष्ट होकर पिण्ड रूप से उत्पन्न होते हैं / कालान्तर में यह पिण्ड पर्याय विशिष्ट
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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