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________________ 104 जैन धर्म में पर्याय की अवधारणा अन्वयी तन्तु द्रव्यरूपता को सिद्ध करता है / इसी प्रकार "जिसका मैंने पूर्व में प्रत्यक्ष किया था, उसी का मैं अब स्मरण कर रहा हूँ" रूप अनुभव अनेक ज्ञान पर्यायों रूप से परिणमनशील एक अन्वयी आत्मद्रव्य को सिद्ध करता है / ___ अनेक क्रमवर्ती पर्यायों के एक द्रव्यरूपता के ज्ञान की भ्रमात्मकता पूर्णरूपेण क्षणिक पदार्थ के ज्ञात होने पर ही सिद्ध हो सकती है। लेकिन क्षणिक पदार्थ की सत्ता को सिद्ध करने वाला कोई प्रमाण नहीं है। प्रत्यक्ष द्वारा सत्ता की क्षणभंगुरता की सिद्धि तभी सम्भव है, जबकि वह मध्य क्षण में पदार्थ के सद्भाव को जानने के साथ ही साथ पूर्वापर क्षणों में उसके अभाव को भी जाने / इसके लिए प्रत्यक्ष का कम से कम तीन क्षण स्थायी होना आवश्यक है। लेकिन यदि प्रत्यक्ष स्वयं अनेक क्षणवर्ती एक ज्ञान है तो उसके द्वारा सत्ता मात्र की क्षणिकता सिद्धि नहीं की जा सकती / 32 बौद्ध विनश्वर स्वभावता और अर्थक्रियाकारित्व हेतु के आधार पर सत्ता के क्षणिक स्वरूप को सिद्ध करना चाहते हैं, लेकिन इन हेतुओं के द्वारा क्षणिकवाद की सिद्धि न होकर सत्ता के परिणामीनित्य स्वरूप की ही सिद्धि होती है। विनाशवानता क्षणिक पदार्थ का धर्म न होकर, उत्पत्तिमान ध्रुव सत्ता का ही स्वभाव होता है / विनाश उसी का हो सकता है, जिसकी पहले उत्पत्ति हुई हो तथा उत्पन्न वही हो सकता है, जिसका उत्पन्न होना स्वभाव हो / ये उत्पत्ति और विनाश दोनों ही निरन्तर नयी पर्याय रूप से परिणमनशील अनन्तशक्ति सम्पन्न ध्रुव सत्ता का स्वभाव हैं / जो वस्तु आकाश कुसुम के समान पूर्णतया असत् है, उसकी न तो कभी उत्पत्ति हो सकती है और न ही उसका विनाश सम्भव है / वस्तुतः सत्ता का स्वभाव विनश्वरता न होकर सत् स्वरूपता या सद्भाव है और उसका यह सद्भाव उत्पादव्यय ध्रौव्य स्वरूप और गुणपर्यायात्मक है / 32 स्वभाव अन्य निरपेक्ष, अकारण और उत्पत्तिविनाश से रहित होता है। इसलिए उत्पादादि स्वभावमय सत्ता अनादि अनन्त सत्ता है / 34 बौद्ध पूर्वक्षणवर्ती पदार्थ के स्वतः और निरन्वय रूप से विनाश पूर्वक उत्तर क्षणवर्ती पदार्थ की उत्पत्ति स्वीकार करते हैं / इस प्रकार उनके अनुसार विनाश निर्हेतुक और उत्पत्ति सहेतुक होती है। जैन दार्शनिक इस मत को अस्वीकार करते हुए कहते हैं, कि उत्पत्ति और विनाश दो अलग-अलग घटनाएं न होकर एक समयवर्ती घटना के दो अभिन्न स्वभाव हैं / अतः दोनों ही स्व पर हेतुक होते हैं / पूर्ववर्ती पदार्थ का विनाश ही उत्तरवर्ती पदार्थ की उत्पत्ति है / अतः जो उत्तरवर्ती पदार्थ की उत्पत्ति के कारण हैं. वे ही पर्ववर्ती पदार्थ के विनाश के भी कारण हैं। जैसे कपाल की उत्पत्ति ही घट का विनाश है। अतः यदि मिट्टी के घट पर मुद्गर के प्रहार से कपाल की उत्पत्ति हो रही है तो मुद्गर का प्रहार कपाल की उत्पत्ति का ही नहीं, घट के विनाश का कारण भी है / विनाश शुद्ध निर्विशेष विनाश स्वरूप नहीं होता; विनष्ट वस्तु शून्यता को प्राप्त नहीं होती, बल्कि वस्तु का विनाश विशेष स्वरूपमय विनाश है। घड़े को मुद्गर के प्रहार पूर्वक दो टुकड़ों में विभाजित करते हुए भी नष्ट हो सकता है; वह बहुत भारी वस्तु से दबाये जाने पर चूरा-चूरा होते हुए भी नष्ट हो सकता है और ऊपर से गिरने पर वह छोटे-छोटे टुकड़े होते हुए भी नष्ट हो सकता है / वस्तु का यह एक विशेष प्रकार से हो रहा विनाश ही उसकी नये स्वरूप में उत्पत्ति है / उत्पत्ति और विनाश में विद्यमान यह अभेद पूर्ववर्ती पदार्थ के निरन्वय विनाश पूर्वक उससे
SR No.032766
Book TitleJain Dharm me Paryaya Ki Avdharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSiddheshwar Bhatt, Jitendra B Shah
PublisherL D Indology Ahmedabad
Publication Year2017
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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