________________ 10 अनेकार्थशब्दसंग्रहपरिच्छेदः / डत्रि०- गारुडं स्यान्मरकते विषशास्त्रेऽपि गारुडम् / वारुण्डः सेकपात्रे स्यान्मले दृक्कर्णयोरपि // 157 / / डच०- जलरुण्डो जलावर्ते पयोरेणौ भुजङ्गमे / ढद्वि०-- दृढः स्थूले भृशे शक्ते प्रगाढेऽपि दृढो मतः // 158 // ढत्रि० - आषाढो वतिनां दण्डे मासे मलयपर्वते / बद्धमूले विरूढः स्यात् वारूढः शम्बलेऽपि च // 159 // कणोऽतिसूक्ष्मे धान्यांशे कृष्णा-जीरकयोः कणा / द्रोणी काष्ठाम्बुवाहिन्यां गवां घासभुजि स्थितौ // 160 // जीर्ण पक्के पुराणे च दीर्ण दारित-भीतयोः / कृष्णा च द्रौपदी नीली हारहूरा च कथ्यते // 161 // णत्रि०- अरुणोऽव्यक्तरागे स्यात् संध्यारागेऽर्कसारथौ / वरुणस्तरुणभेदेऽप्सु प्रतीचीपति-सूर्ययोः // 162 / / प्रघणस्ताम्रपर्णे(?पात्र)' स्यादलिन्दे लोहमुद्गरे / लक्षणं नाम्नि चिह्ने च सौमित्रौ चापि लक्षणः // 163 // लक्ष्मणं लाञ्छने प्रोक्तं रामभ्रातरि लक्ष्मणः / / करेणुर्गज-हस्तिन्योः कर्णिकारेऽपि च क्वचित् // 164 // णच०- आतर्पणं च सौहित्ये गले निगरणो मतः / पारायणमभीष्टे स्यात् तत्पराश्रययोरपि // 165 // पुष्करिणी सरोजिन्यां हस्तिन्यां च जलाशये / णप०- अवतारणं भूतादिग्रहे वस्त्राञ्चलेऽचने // 166 // निन्दोपालम्भवचने परिभाषणमिष्यते / णषट्- दोहदलक्षणं गर्भे वयःसन्धौ च दृश्यते // 167 // तद्वि०- इतं गते स्याद् विज्ञाते रतं सुरत-गुह्ययोः / वित्तं ख्याते धने लब्धे वित्तं ज्ञाते विचारिते // 168 // चितिः समूहे चित्यायां दितिः स्यात् खण्डने दनौ / तत्रि०-- अमृतं यज्ञशेषे स्यात् पीयूषे सलिले घृते // 169 // 1. 'ताम्रकुम्मे' इति मेदिनीकोशः / 25