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________________ शरीर का मूल्यांकन ही घर भरने वाला होता है । एक ही चीज के दो अर्थ हो गए । एक ही परिणति के दो रूप सामने आ गए। हम देखते हैं कि हर वस्तु के दो रूप होते हैं । कोई भी वस्तु एक रूप में नहीं होती। भगवान् महावीर ने कहा-'जे आसवा ते परिसवा, जे परिसवा ते आसवा ।' जो आश्रव हैं, वे परिश्रव हैं। जो परिश्रव हैं, वे आश्रव हैं। यानी जिनके द्वारा कर्म आते हैं, बन्धन आते हैं, उन्हीं के द्वारा मुक्ति प्राप्त होती है। उन्हीं में से मुक्ति आती है । और जिनमें से मुक्ति आती है, उन्हीं में से बन्धन आता है । बन्धन और मुक्ति के द्वार दो नहीं हैं। बन्धन और मुक्ति के रास्ते दो नहीं हैं । अन्तर होता है हमारी वृत्ति का और अन्तर होता है हमारे कर्म का। शरीर के बारे में दोनों दृष्टियां हैं। अनेक विद्वानों ने शरीर को खूब गालियां दी हैं। शरीर को नरक का द्वार, शरीर को बहुत बुरा, शरीर को छोड़ने जैसा, शरीर किसी काम का नहीं आदि-आदि काफी लिखा है। तो. दूसरी ओर शरीर की अभ्यर्थना भी की गयी है। शरीर की पूजा की गई है। शरीर एक पवित्र मन्दिर है जिसमें प्रभु विराजमान हैं, भगवान् विराजमान हैं और यह भगवान् का मंदिर बहुत ही पवित्र, बहुत ही पुण्य और बहुत ही अर्चनीय और बहुत ही वंदनीय है। शरीर के दोनों रूप हमें प्राप्त होते हैं। हमारे सामने उलझन है । क्या यह शरीर सचमुच निंदनीय है ? या वंदनीय है ? हम इसकी निंदा करें या वन्दना करें ? क्या करें, यह हमारे सामने प्रश्न है । दोनों का अपना-अपना दृष्टिकोण है । घास से घर भरने वाले का अपना दृष्टिकोण है और प्रकाश से घर भरने वाले का अपना दृष्टिकोण है बिना दृष्टिकोण के कुछ भी नहीं होता । सचमुच अपना दृष्टिकोण ही सब कुछ होता है । तो शरीर की निन्दा करने वालों का भी अपना दृष्टिकोण है । हम क्या करें, यह प्रश्न हमारे सामने है। मैं समझता हूं कि शरीर निंदनीय तो नहीं है । निंदा करें वैसा तो नहीं है और शरीर में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे शरीर पर हम इतना दबाव डालें और इतना उसे निरर्थक समझे । कारण बहुत साफ है। हमारी सारी शक्तियों का, हमारे सारे कर्तृत्वों का, हमारी सारी चैतन्य की रश्मियों का यदि कोई वाहक या संवाहक है तो यह शरीर ही है। इस शरीर के बिना कुछ भी नहीं हो सकता।
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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