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________________ जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण २६७ चमत्कार है । आत्मानुभूति या ध्यान आत्मा की आन्तरिक शक्ति का विकास है। प्रथम दोनों शक्तियों से तीसरी शक्ति अभिभूत हो गई। इसका परिणाम यह हुआ कि जिस जैन परम्परा ने वीतरागता पर सबसे अधिक बल दिया था वह बाहरी आचार और व्यवहार में उलझ गई। धर्म, साधुत्व और श्रावकत्व के मानदण्ड बदल गए। आज हम बाहरी आचार से सन्तुष्ट हैं, वीतरागता के प्रति उतने सजग नहीं हैं। भगवान् महावीर ने कहा था'कामाणुगिद्धिप्पभवं खु दुक्खं'--दुःख कामनाओं से उत्पन्न होता है । कामना से उत्पन्न होने वाला दुःख कामना से नहीं मिटाया जा सकता। उसे मिटाया जा सकता है वीतरागता के द्वारा । भगवान् ने कहा है-'तस्संतगं गच्छइ वीयरागों-वीतराग उस दुःख का पार पा जाता है। केवल वीतराग ही दुःख के सिन्धु का पार पाता है। हमने वीतराग को ही अपना पथ-दर्शक चुना है, किसी रागवान् को नहीं। वह वीतरागता अध्यात्म योग के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है-न वाद के द्वारा और न मंत्र के द्वारा । हमारी सारी साधनापद्धति वीतरागता की उपलब्धि के लिए है । हमारा ध्यान भी उसी की सिद्धि के लिए है । आज उस ध्यान की शब्दावली और परिभाषा उपलब्ध है पर उसके रहस्य विस्मृत हो चुके हैं। भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के इस अवसर पर उन विस्मृत रहस्यों को खोजना है, टूटी कड़ियों को फिर से जोड़ना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आज जैन परम्परा में एक समर्थ ध्यान शाखा की अपेक्षा है । हमें प्राचीन ध्यान-पद्धति का मनोविज्ञान के सन्दर्भ में मूल्यांकन करना है। मनोविज्ञान ने विकलन, विश्लेषण, निर्देशन तथा मार्गान्तरीकरण आदि तथ्यों का निरूपण किया है। उनका जैन ध्यान पद्धति के साथ बहुत अधिक सामंजस्य है। उनका तुलनात्मक अध्ययन होना चाहिए तथा नए अनुभवों का समावेश भी होना चाहिए। पूर्ववर्ती आचार्यों ने विभन्न पद्धतियों का जो समावेश किया वह बिना सोचे-समझे नहीं किया। उन्होंने बड़ी बुद्धिमत्ता के साथ उनका समावेश किया। मैं उसका खंडन नहीं कर रहा हूं। मैंने जो कुछ कहा है उसका तात्पर्य यह है कि मौलिक और समावेश का भेद हमारे सामने स्पष्ट होना चाहिए। हमारी. मौलिक पद्धति विपश्यना है, अन्तर्मुखी होना या आत्म-निरीक्षण है। इसे पुनर्जीवित कर हम साधना की नई दिशा उद्घाटित कर सकते हैं । आज जैन परम्परा में लगभग चार हजार साधु-साध्वियां हैं । सौ-दो सौ साधु-साध्वियां इस कार्य में लगें, जन सम्पर्क, प्रचार और उपदेश से मुक्त होकर केवल
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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