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________________ मनुष्य का स्वभाव है कि वह नवीन के प्रति आकर्षित होता है । और प्रभावशाली व्यक्तित्व का अनुकरण करता है। परम्परा के परिवर्तन में ये दोनों तथ्य बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विक्रम की दसवीं शताब्दी में गोरखनाथ हुए । उन्होंने हठयोग का प्रवर्तन किया । हठयोग की पुरातन शाखा महर्षि मार्कण्डेय की थी। उसका प्रभाव कम हो रहा था । गोरखनाथ का व्यक्तित्व बहुत प्रभावी था। उसके साथसाथ नई शाखा भी बहुत प्रभावशाली बन गई। योग की प्रत्येक शाखा का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ और हर शाखा ने उसे अपनाने का प्रयत्न किया । हठयोग की इस नई शाखा ने पतंजलि के द्वारा प्रतिपादित योग के आठ अंगों में से छह अंगों को मान्यता दी। वे थे-आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि । यम और नियम को उसने मान्यता नहीं दी। उसका झुकाव तंत्रशास्त्र की ओर था। इसलिए ऐसा होना स्वाभाविक था। हठयोग के मुख्य अंग थे-छह चक्र, सोलह तत्त्व या लक्ष्य, पांच आधार आदि-आदि । तंत्र की शाखा भारतवर्ष में बहुत पुरानी थी। हठयोग के विकास के साथसाथ तंत्रशास्त्र के प्रति भी जनता का आकर्षण बढ़ रहा था। सच यह है कि जिस ओर जनता अधिक आकर्षित होती है, उस ओर सबका ध्यान आकृष्ट हो जाता है । इस आकर्षण का हेतु प्रवृत्ति की अपेक्षा जनता के आकर्षण को मानना सत्य के अधिक निकट होगा। जनता का झुकाव तंत्र, मंत्र और हठयोग की ओर अधिक होने लगा। इस स्थिति से बचना किसी भी परम्परा के लिए कठिन था। जैन परम्परा भी उससे नहीं बच सकी। उसकी ध्यान की मौलिक धारा निर्जरा या विशुद्ध अध्यात्म के लिए थी। वह धीरे-धीरे छूटती गई । उसमें नया प्रवेश होता चला गया। आचार्य हरिभद्र . ने महर्षि पतंजलि के योगदर्शन की पद्वति को जैन साधना पद्धति के साथ जोड़ा। उससे बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं हुआ। कुछ बातें नई जुड़ीं। उन्होंने 'योगविंशिका' में योग के पांच तत्त्व बतलाए । उनमें एक है 'ऊर्ण' । उसका अर्थ होता है स्वर, जप । जैन साधना पद्धति में भावना के लिए स्थान है ।
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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