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________________ जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण २६ε अर्हत दगभाली ने लिखा है - 'मनुष्य का सिर काट देने पर उसकी मृत्यु हो जाती है, वैसे ही ध्यान को छोड़ देने पर धर्म चेतनाशून्य हो जाता है । जैसे मनुष्य की चेतना का केन्द्र मस्तिष्क है, वैसे ही धर्म की चेतना का केन्द्र ध्यान है' सीसं जहा सरीरस्स, जहा मूलं सव्वस्स साधुधम्मस्स, तहा झाणं यदि हम धर्म को ध्यान से अलग कर दें तो उसकी वही गति होगी जो मस्तिष्क से विहीन मनुष्य की होती है । जिस परम्परा के अर्हत् ने ध्यान का इतना मूल्यांकन किया उस परम्परा में ध्यान है या नहीं - क्या यह प्रश्न पूछा जा सकता है ? फिर भी यह प्रश्न पूछा जाता है । लोग पूछते हैं- क्या जैन परम्परा में ध्यान है ? यह प्रश्न सर्वथा अहेतुक नहीं है । वर्तमान में जैन लोग जितना बल बाह्य आचार पर देते हैं उतना ध्यान पर नहीं देते । इसलिए यह प्रश्न पूछा जाता है, उसमें आश्चर्य नहीं है किन्तु जैन साधना पद्धति की दृष्टि से यह प्रश्न हो ही नहीं सकता । जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने लिखा 1 'मोक्ष के दो मार्ग हैं, संवर और निर्जरा । उनका मार्ग है तप और तप का प्रधान अंग है— ध्यान । इसलिए मोक्ष का मुख्य साधन ध्यान है । ' इस समाहार की प्रक्रिया में समूचा मोक्षमार्ग ध्यान में केन्द्रित हो जाता है । आचार्य जिनसेन ने तपस्या के सभी प्रकारों को ध्यान का परिवार बतलाया है । दुमस्स य । विधीयते ॥ जिस परम्परा में ध्यान का इतना महत्त्व था उसमें ध्यान की पद्धति लुप्तजैसी हो गई, यह बहुत बड़ा प्रश्न है । इसलिए कुछ लोग यह जानना चाहते हैं कि जैन परम्परा में ध्यान की मौलिक पद्धति क्या है ? इस विषय में कुछ चर्चा करनी है । इस विषय की चर्चा करने के लिए मैं अपने विषय को चार भागों में विभक्त करता हूं १. भगवान् महावीर से आचार्य कुन्दकुन्द तक । २. आचार्य कुन्दकुन्द से आचार्य हरिभद्र तक । ३. आचार्य हरिभद्र से आचार्य यशोविजय तक । ४. आचार्य यशोविजय से आज तक | १. झाणज्भयणं, ε६ : संवरविणिज्जराओ मोक्खस्स पहो तवो पहो तासि । भाणं च पहाणंगं तवस्स तो मोक्खहेऊयं ॥
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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