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महावीर की साधना का रहस्य
जिससे मैत्री भाव बढ़ता है, जैन शासन में उसे ही ज्ञान कहा है।"
जैन दर्शन और जैन धर्म-दोनों साथ-साथ चलते हैं । जैन दर्शन ने तत्त्व की व्याख्या की है तो जैन धर्म ने व्यक्तित्व के रूपान्तर की पद्धति प्रस्तुत की है। उस पद्धति का नाम है 'मोक्ष मार्ग' । बौद्ध साधना-पद्धति का नाम 'विशुद्धि मार्ग' और सांख्य दर्शन की साधना-पद्धति का नाम 'योगदर्शन' है । ये नाम भिन्न-भिन्न हैं, पर तात्पर्य में भिन्नता नहीं है। इन सबका उद्देश्य है चित्त को निर्मल करना । विश्व की जितनी साधना-पद्धतियां हैं वे सारी की सारी मनुष्य को अन्तर् की गहराई में ले जाने की पद्धतियां हैं । वे जहां से शुरू होती हैं वहां छोटी दिखाई देती हैं, आगे जाकर वे विस्तीर्ण हो जाती हैं और इतनी विस्तीर्ण कि वहां नाम का भेद भी समाप्त हो जाता है ।
बहुधा पूछा जाता है कि जैन परम्परा में योग है या नहीं? महर्षि पतंजलि ने योग की सुव्यवस्थित और सर्वग्राही पद्धति प्रस्तुत की है। उनका योगदर्शन बहुत प्रसिद्ध हो गया। उसकी प्रसिद्धि ने प्रत्येक साधना-पद्धति के सम्मुख यह प्रश्न उपस्थित कर दिया कि अमुक धर्म में योग है या नहीं ? ध्यान की पद्धति है या नहीं ? जैन परम्परा भी इस प्रश्न से मुक्त नहीं है। कोई मुझे पूछे कि जैन परम्परा में योग है या नहीं ? ध्यान की पद्धति है या नहीं, तो योग के बारे में मेरा उत्तर सापेक्ष होगा। मैं कहूंगा कि जैन परम्परा की साधना-पद्धति का नाम 'योग' नहीं है । उसका नाम 'मोक्ष मार्ग' है । तात्पर्यार्थ की दृष्टि से मेरा उत्तर होगा कि जैन परम्परा में योग है। जैन आगमों में 'ध्यान-योग', 'समाधि योग' और 'भावना योग'-इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं । फिर भी 'योग' शब्द को जितना उत्कर्ष महर्षि पतंजलि के योगदर्शन के बाद मिला उतना सम्भवतः पहले नहीं मिला। इसलिए जैन साधना-पद्धति को मौलिक रूप में योग शब्द के द्वारा अभिहत नहीं किया जा सकता । किन्तु ध्यान के बारे में मेरा उत्तर इससे भिन्न होगा। ध्यान को किसी भी दृष्टिकोण से जैन परम्परा से पृथक् नहीं किया जा सकता है । वह उसका मौलिक तत्त्व है। १. मूलाचार, ५।६०, ६१ : । • जेण तच्चं विबुज्झज्ज, जेण चित्तं निरुज्झदि ।
जेण अत्ता विसुज्झज्ज, तं गाणं जिणसासणे ॥ • जेण रागा विरज्जेज्जा, जेण सेए-सु रज्यदि ।
जेण मित्ति पभाविज्य, तं णाणं जिणसासणे ॥