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________________ १ जैन परम्परा में ध्यान : एक ऐतिहासिक विश्लेषण आचार्य हरिभद्र ने लिखा है वादांश्च प्रतिवावांश्च, वदन्तो निश्चितांस्तथा । तस्वान्तं नैव गच्छन्ति तिलपोलकवद् गतौ ॥ _ 'वाद और प्रतिवाद से तत्त्व प्राप्त नहीं होता। एक मनुष्य वाद करता है, दूसरा उसका प्रतिवाद करता है। इस वाद और प्रतिवाद के क्रम में एक नहीं अनेक जन्म बीत जाएं, पर सत्य नहीं पहुंचा जा सकता। जैसे कोल्हू पेरने वाला बैल घंटों तक घूमता रहता है, पर कहीं नहीं पहुंचता, केवल धुरी के आसपास घूमता रहता।' तर्क और प्रतितर्क, वाद और प्रतिवाद के द्वारा सत्य हाथ नहीं लगता'यह सत्य जब समझ में आ जाता है तब मनुष्य की दिशा बदल जाती है, चिन्तन की धारा बदल जाती है । दृष्टिकोण बदल जाता है । उसका अभियान अध्यात्म की दिशा में हो जाता है । आचार्य ने परामर्श दिया है कि यदि सत्य को पाना है तो वाद और प्रतिवाद के अखाड़े को छोड़कर अध्यात्म का अनुचिंतन करो-'मुक्त्वाऽतो वादसंघट्टमध्यात्मननुचिन्त्यताम् ।' ___ भारत में अनेक धार्मिक परम्पराएं हैं । उनकी भिन्न-भिन्न धारणाएं और मान्यताएं हैं। पर एक बात उन सबके साथ जुड़ी हुई है, और वह है साधनापद्धति । कोई भी धार्मिक परम्परा ऐसी नहीं है जिसकी अपनी साधना-पद्धति न हो । जिसके साथ साधना-पद्धति जुड़ी हुई न हो, वह धार्मिक परम्परा नहीं हो सकती। भारतीय चिन्तन ने दर्शन और धर्म की पृथक्ता को मान्यता नहीं दी। ज्ञान केवल ज्ञान के लिए नहीं रहा, किन्तु जीवन के रूपान्तरण के लिए रहा । आचार्य बट्टकेर ने लिखा है 'जिससे पदार्थ जाना जाता है, जिससे चंचल चित्त का निरोध होता है, जिससे आत्मा की विशुद्धि होती है, जैन शासन में उसे ही ज्ञान कहा है।' "जिससे राग का विनयन होता है, जिससे श्रेय की ओर गति होती है,
SR No.032716
Book TitleMahavir Ki Sadhna ka Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragya Acharya, Dulahrajmuni
PublisherTulsi Adhyatma Nidam Prakashan
Publication Year1985
Total Pages322
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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