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महावीर की साधना का रहस्य
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की अवस्था है ।
अध्यात्म के प्रसंग में दो शब्द बहुत प्रचलित हैं— बहिर्मुखता और अन्तर्मुखता । हम बहिर्मुखता का अर्थ समझते हैं और अन्तर्मुखता का अर्थ भी समझते हैं । किन्तु साधना के संदर्भ में बहिर्मुख का अर्थ हमें और अधिक गहराई से समझना होगा । बहिर्मुख कौन होता है ? शब्द की दृष्टि से बहिर्मुख का अर्थ है – जिसका मुख बाहर की ओर हो । अन्तर्मुखता का अर्थ है - जिसका मुख अन्दर की ओर हो, भीतर की ओर हो । पर बहिर्मुख क्या है ? किसे बहिर्मुख कहा जाए ? और किसे अन्तर्मुख कहा जाए ?
हम श्वास लेते हैं और हमारा श्वास मूलतः और अधिकांशतः दो नाड़ियों से प्रवाहित होता है । बायीं और दायीं, इड़ा और पिंगला- इन दो नाड़ियों से हमारा श्वास प्रवाहित होता है । जो व्यक्ति केवल इड़ा और पिंगला, बाएं और दाएं स्वर से ही श्वास का प्रयोग अधिक करता है, या जिसके श्वास का संचार इन्हीं दो मार्गों से होता है, वह व्यक्ति बहिर्मुख होता है ।
इसका तात्पर्य क्या है ? मैं और स्पष्ट करूं । जिसका सुषुम्ना का मार्ग नहीं खुलता, मध्य मार्ग नहीं खुलता, सुषुम्ना का मार्ग उन्मुक्त नहीं होता, उसका मन, उसकी इन्द्रियां अन्तर्मुख नहीं होतीं - उनकी चंचलता समाप्त नहीं हो सकती - चाहे वह कितना ही मन में संकल्प क्यों न करे ? 'मुझे मन को चंचल नहीं बनाना है, इन्द्रियों को चंचल नहीं बनाना है' - चाहे वह बारबार इस बात को दोहराए, बार-बार रटन लगाए, बार-बार मन में संकल्प और भावना करे और त्याग करने का भी प्रयत्न करे किन्तु जब तक सुषुम्ना क्रा मार्ग नहीं खुलता, मध्य मार्ग नहीं खुलता और सुषुम्ना के मार्ग से मन और प्राण का संचार नहीं होता, तब तक व्यक्ति बहिर्मुख रहता है । बहिर्मुखता इन्द्रिय और मन की चंचलता से आती है । जिसका मन चंचल और इन्द्रिय चंचल, वह बहिर्मुख होता है । उसकी चंचलता आती है सुषुम्ना का मार्ग न खुलने के कारण - यानी इड़ा और पिंगला में श्वास का प्रवाह होने के कारण उसकी बहिर्मुखता आती है । इसलिए जिस व्यक्ति ने केवल स्थूल शरीर को ही सब कुछ मान रखा है, जो स्थूल शरीर को सामने रखकर चलता है, स्थूल शरीर में रहने वाली इन्द्रियों को ध्यान में रखकर प्रवृत्ति करता है, वह व्यक्ति अन्तर्मुख नहीं हो सकता ।
यह एक तथ्य मैंने आपके सामने रखा। यह बहुत ही गंभीर तथ्य है और जैन दर्शन के द्वारा समर्पित तथ्य है । आप ध्यान दें । हमारा यह